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________________ ३७४ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्रो साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड पहाड़ों में से वैभार आदि चार पहाड़ों को सिद्धक्षेत्र रूप में स्वीकार नहीं किया गया है, तो क्या यह माना जा सकता है कि उक्त चार पहाड़ सिद्धक्षेत्र नहीं ही है। वस्तुतः सिद्धक्षेत्रों या अतिशय क्षेत्रों के निर्णय करने का यह मार्ग नहीं है । किन्तु इस सम्बन्ध में यह मान कर चला जाता है कि जिन आचार्य को जितने सिद्धक्षेत्रों या अतिशय क्षेत्रों के नाम ज्ञात हुए, उन्होंने उसने सिद्धक्षेत्रों और अतिशय क्षेत्रों का संकलन कर दिया। दूसरे सोनागिरि के विषय में चर्चा करते हुए उन्होंने अपने प्रथम लेख के अन्त में लिखा है कि 'अतः मेरे विचार और खोज से कपडलगिरि को सिद्धक्षेत्र घोषित करने या कराने की चेष्टा की जायगी, तो एक अनिवार्य भ्रान्त परम्परा इसी प्रकार की चल उठेगी जैसी कि वर्तमान के रेसिंदीगिर और सोनागिर की चल पड़ी है।' उसी में हेरफेर करके उनके दूसरे लेख का निष्कर्ष भी यही है । इन दो उल्लेखों से ऐसा लगता है कि पहले तो वे रेसिदीगिर, सोनागिर और कुण्डलगिरि इन तीनों को सिद्धक्षेत्र नहीं मानते रहे और बाद में उन्होंने रेसिदोगिर और सोनागिर को तो सिद्धक्षेत्र मान लिया है। मात्र कुण्डलगिरि को सिद्धक्षेत्र मानने में उन्हें विवाद है। पर किस कारण से उन्होंने सिदीगिर और सोनागिर को सिद्ध क्षेत्र मान लिया है, इस सम्बन्ध में वे मौन हैं। मात्र कुण्डलगिरि को सिद्धक्षेत्र न मानने में उन्होंने जो तर्क दिये हैं, वे कितने प्रमाणहीन है, यह हम पहले ही स्पष्ट कर आये हैं । अतः हमारे लेख में दिये गये तथ्यों के आधार पर यही मानना शेष रह जाता है कि सब ओर से विचार करने पर कुण्डलगिरि भी सिद्धक्षेत्र सिद्ध होता है। ___ अब केवल बड़े वाबा के गर्भालय के बाहर दीवाल पर एक शिलापट्ट में जो प्रशस्ति उत्कीर्ण है, उसे अविकल देकर उससे जो तथ्य सामने आते हैं, उन पर प्रकाश डाल देना क्रम प्राप्त है । जिसे भट्टारक सम्प्रदाय ग्रन्थ में जेहरट शाखा कहा गया है, वह वास्तव में जेहुरटशाखा न होकर चन्देरी शाखा है। यह शाखा भट्टारक देवेन्द्रकीति से प्रारम्भ होती है । इसके छटे पट्टधर भट्टारक ललितकीर्ति थे। उसी पट्ट पर बैठने वाले ७ वें भट्टारक धर्मकीर्ति और ८ वें भट्टारक पद्मकोति हए हैं। धर्मकीति ने ही श्रीरामदेव पुराण की रचना की है। यह पट्ट मूलसंघ कुन्दकुन्दाम्नाय के अन्तर्गत सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण के आम्नाय को मानने वाला था। चाँदखेड़ी के एक शिलालेख में इसे परवार भट्टारक पट्ट भी कहा गया है। श्री भट्टारक पद्मकीति के समकक्ष दूसरे भट्टारक का नाम चन्द्रकीर्ति था । सम्भवतः ये पट्टधर भट्टारक थे। चन्देरी पट्ट के १० वें भट्टारक श्री सुरेन्द्रकीति थे। उन्होंने ही अपने गुरु श्री सुरेन्द्रकीर्ति के उपदेश से भिक्षाटन द्वारा बड़े बाबा के मन्दिर का जीर्णोद्धार कराने का विचार किया था। बाद में उनकी आयु पूर्ण हो जाने पर जो वेदी आदि का कार्य थोड़ा न्यून रह गया था, उसे नमिसागर ब्रह्मचारी ने पूरा कराया। जिस समय यह कार्य सम्पन्न हो रहा था, बुन्देलखण्ड के प्रसिद्ध राजा छत्रसाल वहीं रह रहे थे। मुसलमानों के आक्रमण से त्रस्त होकर वहां उन्हें बहुत काल तक रहना पड़ा। इससे प्रभावित होकर उन्होंने कुण्डलगिरि के तलभाग में एक विशाल सरोवर का निर्माण कराया और श्री मन्दिर के लिए अनेक उपकरण भेंट किये। उनमें दो का घण्टा भी था। बड़े बाबा के मन्दिर के बाहर दीवाल में लगे हुए विशाल पट्ट का यह सामान्य परिचय है। इससे इतना ही ज्ञात होता है कि वहाँ कुण्डलगिरि के ऊपर एक प्राचीन जिनमन्दिर था, उसमें जो बड़े बाबा की मूर्ति विराजमान थी, उसे ब्रह्मचारी नमिसागर ने भगवान् महावीर की मूर्ति कहा है । यह जिनमन्दिर और दोनों ब्रह्ममन्दिर, इस लेख से मालूम पड़ता है कि उसो काल से प्रसिद्धि में आये हैं और उसके फलस्वरूप वहाँ जनता का आना जाना प्रारम्भ हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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