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________________ ३६० पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड "पूर्व दिशा के उस भाग में जो प्रथम पुरुष अध्यक्ष के निमित्त बना, उसी नाम (प्राग्वाट) से एक स्थल बनाया गया । उत्तरकाल में उसकी जो सन्तान हुई, वे लक्ष्मीसम्पन्न थीं और वे 'प्राग्वाट' नाम से प्रसिद्ध हुई।" _ 'जातिभास्कर' (बेंकटेश्वर प्रिंन्टिग प्रेस, बम्बई) के पृष्ट २६३ पर लिखा है," पुरावाल गुजरात के पोरवा (पोरबन्दर) के पास होने से ये पुरावाल कहकर प्रसिद्ध हुए हैं। इस समय ललितपुर, झांसी, कानपुर, आगरा, हमीरपुर, बांदा जिलों में इस जाति के बहुत से लोग रहते हैं। वे यज्ञोपवीत धारण नहीं करते । श्रीमाली ब्राह्मण इनका पौरोहित्य करते हैं । अहमदाबाद के विख्यात धनी श्री भागूभाई पुरोवाल वंशोत्पन्न है । डा० विलास ए० संगवे ने अपने पी० एच० डी० शोधप्रबन्ध 'सामाजिक सर्वेक्षण' में किस अन्वय का किस नगर आदि में संगठन हुआ, इसकी सूची दी है। उसमें बताया है कि 'परवार' अन्वय का संगठन 'पारानगर' में और पौरवार अन्वय का संगठन पोरवा नगर में हुआ है। उपरोक्त दस उद्धरणों में से कई तो प्राग्वाट प्रदेश की सीमा में पुरमण्डल को सम्मिलित करते है और कई नहीं भी। इसमें एक मत यह भी है कि गुजरात के पोरबन्दर के समीप जो 'पोरवा गाँव है, उसको माध्यम बनाकर इस अन्वय का गठन हुआ है। अन्तिम मत यह है कि पारानगर में परवार अन्वय का संगठन हआ। इन चार मतों पर दष्टि डालने से यह तथ्य फलित होता है कि प्रारबाट प्रदेश से लेकर पोरबन्दर तक का प्रदेश इस अन्वय के संगठन का स्थान होना चाहिए। पोरबन्दर नाम भी समुद्री तट के यातायात के साधनरूप से प्रयुक्त होने के कारण पड़ा प्रतीत होता है । यह अवश्य है कि प्राग्वाट प्रदेश की मुख्यता होने से सर्वप्रथम इस अन्वय का संगठन 'प्राग्वाट' नाम से ही हुआ होगा। साथ ही, पुरमण्डल में रहने वाले क्षत्रिय कुलों की विशेषता होने से प्राग्वाट अन्वय को 'पौरपाट' या 'पोरवाड' नाम से भी सम्बोधित करते होंगे । बाद में प्राग्वाट नाम लुप्त हो गया और पोरवाड़ नाम प्रसिद्धि में आया होगा। किन्तु इस अन्वय के संगठन का समय प्रथम श्रुतकेवली भद्रबाहु का काल होना चाहिये क्योंकि तबतक संघ भेद न होने से सभी एक ही आम्नाय के मानने वाले होंगे और प्राग्वाट कुलों में कोई भेद नहीं रहा होगा। परन्तु भद्रबाह के काल में संघभेद हो जाने के कारण जो पुराने आम्नाय के अनुसार चले, वे मूलसंघी कहलाये और जिन्होंने वस्त्रपात्र को स्वीकार किया, वे श्वेतपट कहलाये । दिगम्बर आम्नाय को माननेवाले ही मूलसंघी हैं। ____ इस प्रकार प्राग्वाट अन्वय के संगठन का स्थान निर्णीत होने के बाद यह अन्वय दो भागों में कब विभक्त हआ, इसके कारण का भी पता लग जाता है। यह निश्चित है कि आचार्य भद्रबाहु के काल में ही यह विभक्त हआ, किन्तु मूलसंघ का सेहरा केवल पोरवाट अन्वय के सिर पर बधा, यह हम नहीं कह सकते । फिर भी, दूसरे संघ का नाम श्वेतपट संघ हुआ। उत्तराध्ययन में केशी-गौतम सम्वाद की जो कथा आती है, उसका प्रयोजन यही प्रतीत होता है कि श्वेतपट संघ अपने को पार्श्वनाथ-संतानीय घोषित कर प्राचीन कहे। परन्तु यह श्वेताम्बर शास्त्रों से ही स्पष्ट है कि सभी तीर्थकर वस्त्रालंकार त्याग मुनिधर्म में दीक्षित हुए। ऐसी स्थिति में अपने अनुयायी शिष्यों को उन्होंने अंशतः वस्त्र रखकर मुनिधर्म में दीक्षित होने की स्वीकृति कैसे दी होगी क्योंकि वस्त्र भी तो राग का प्रतीक है और निर्वाण में बाधक है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मूल श्रीसंघ विभक्त होने के बाद प्राग्वाट अन्वय भी दो भागों में विभक्त हो गया-मूलसंघ तो पूर्ववत् दिगम्बर हो रहा, विभक्त हुए परिवार श्वेतपट कहलाये बहुतों ने कालान्तर में अजैन सम्प्रदाय को भी स्वीकार किया । ऐसे बहुतेरे पौरवाड़ परिवार हैं जिन्होंने जैनधर्म को दूर से ही नमस्कार कर लिया है । वर्तमान में प्राग्वाट अन्वय के नौ भेद पाये जाते हैं : (१) पौरपाट या पौरपट्ट अन्वय, (२) सौरठिया पौरवाल, (३) कपोला पौरवाल, (४) पद्मावती पोरवाल, (५) गुर्जर पौरवाल, (६) जांगड़ा पौरवाड़, (७) मेवाड़ो और मलकापुरी पौरवाड़, (८) मारवाड़ी पोरवाल और (९) पुरवार । यहां पौरपाट या पौरपट्ट अन्वय मुख्यतः अनुसंघेय है । यह निश्चित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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