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________________ पौरपाट (परवार) अन्वय-१ ३५९ 'प्राग्वाट इतिहास' में लोढा ने लिखा है कि वर्तमान सिरोही राज्य, पालनपुर राज्य का उत्तर-पश्चिम भाग, गौड़वाड (गिरिवाड़) तथा मेरपाट प्रदेश का कुम्भलगढ और पुरमण्डल तक का भाग कभी प्राग्वाट प्रदेश के नाम से ख्यात रहा है। यह प्रदेश प्राग्वाट क्यों कहलाया, इस प्रश्न पर आज तक विचार नहीं किया गया। यदि किसी ने विचार किया भी हो, तो वह प्रकाश में नहीं आया। उनके अनुसार, 'उक्त प्राग्वाट प्रदेश अर्बुदांचल का ठीक पूर्वभाग अथवा पूर्ववाट समझना चाहिए । श्रीमालपुर के पूर्वबाट में बसने के कारण जैसे वहाँ के जैन बनने वाले कुल अपने बाट के अध्यक्ष का नेतृत्व स्वीकार करके उनके 'प्राग्वाट' पद नाम के अनुकूल सभी प्राग्वाट कहलाये, इसी दृष्टि से आचार्यश्री ने भी पद्मावती में अबल प्रदेश के पूर्ववाट क्षेत्र की जो पाट नगरी थी, उसमें जैन बनने वाले कुलों को भी प्राग्वाट नाम ही दिया है। वैसे अर्थ में भी अन्तर नहीं पड़ता। पूर्ववाड़ का संस्कृत रूप पर्ववाट है। और पूर्ववाट का' 'प्राच्यां वाटो इति प्राग्वाट' पर्यायवाची शब्द ही तो है। पद्मावती नरेश को अधीश्वरता के कारण तथा पद्मावती में जैन बने बृहत् प्राग्वाट श्रावकवर्ग की प्रभावशीलता के कारण तथा ण वृद्धिगत प्राग्वाट परम्परा के कारण यह प्रदेश ही पूर्ववाट से प्राग्वाट नामधारी हुआ हो।। उपरोक्त अनुमानों से यह आशय ग्रहण करना समचित लगता है कि अर्वली पर्वत का पूर्वभाग (जिसे मैंने पूर्ववाट लिखा है) उन वर्षों में अधिक प्रसिद्धि में आया। तब उसका कोई नाम अवश्य ही दिया गया होगा। प्राग्वाट धावक वर्ग के पीछे ही उक्त प्रदेश सम्भवतः प्राग्वाट कहलाया हो। यदि यह नहीं भी माना जाय, तो भी इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि प्राग्वाट श्रावक वर्ग की उत्पत्ति और मूल विकास के कारणों का तथा धीरे-धीरे उनकी विस्तारित परम्परा की प्रभावशीलता तथा प्रमुखता का इस प्रदेश के प्राग्वाट नामकरण पर अत्यधिक प्रभाव रहा है। आज भी प्राग्वाट जाति अधिकांशतः इस भाग में बसती है और गुर्जर, सौराष्ट्र, से और मालवा तथा संयुक्त प्रदेश में इसकी जो शाखायें ग्रामों में थोड़े कुछ अन्तर से बसती है, वे इसी भूभाग से गई हुई है । ऐसा वे भी मानती है। लोढा ने स्वयं के उपरोक्त विचारों के साथ अपने ग्रन्थ के पादटिप्पण में अन्य पुरातत्त्वविदों के भी निम्न विचार दिये है : (१) वर्तमान में गौड़वाड़, सिरोही राज्य के भाग का नाम कभी प्राग्वाट प्रदेश रहा था । (स्व० अगरचन्द्र नाहटा)। (२) अर्बुद पर्वत से लेकर गौड़वाड़ तक के लम्बे प्रान्त का नाम पहले प्राग्वाट था (मुनिश्री जिनविजय) । इससे उनके आश्रय में जाकर मैंने भी उनसे चर्चा की है और उन्होंने मुझसे भी अपना यही मत व्यक्त किया। इस प्रसंग में हम गौरीशंकर हीराचन्द ओझाजी का मत पहले ही व्यक्त कर चुके हैं। उन्होंने, इसके अतिरिक्त अपने 'राजपूताना का इतिहास-१' ग्रन्थ में लिखा है," करमवेल (जबलपुर के निकट) के एक विशाल लेख में प्रसंगवशात् मेवाड़ के गुहिलवंशी राजा हंसपाल, वैरिसिंह और विजयसिंह का वर्णन आया है जिसमें उनको प्राग्वाट का राजा कहा है । अतएव प्राग्वाट मेवाड़ का ही नाम होना चाहिये । संस्कृत शिलालेखों तथा पुस्तकों में 'मेवाड़' महाजनों के लिये 'प्राग्वाट' नाम का प्रयोग मिलता है और वे लोग अपना निवास मेवाड़ के 'पुर' नामक कस्बे से बताते हैं। इससे सम्भव है कि प्राग्वाट देश के नाम पर वे अपने को प्राग्वाट वंशी कहते रहे हों।" प्राग्वाट इतिहास-१" में श्रीमालपुर में बसने वाली जातियों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि इस नगरी में बसनेवाले जो 'धनोत्कटा' थे, वे धनोत्कटा श्रावक कहलाये। उनमें जो कम श्रीमन्त थे, वे श्रीमाल श्रावक कहलाये और जो पूर्ववाट में रहते थे, वे प्राग्वाट श्रावक कहलाये। विक्रम १२३६ (११७९ ई०) में नेमिचन्द्र सूरि कृत "महावीर चरित्र' प्रशस्ति में एक श्लोक आया है जिसका निम्न अर्थ है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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