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________________ पौरपाट (परवार) अन्वय-१ पं० फूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री रुड़की १. जैन जातियों का प्रारम्भिक काल भारतवर्ष अगणित जातियों का देश है। जिन धर्मों के अनुयायियों ने जातिप्रथा को स्वीकार नहीं किया, उनकी संख्या की दृष्टि से वृद्धि हुई है, यह प्रत्यक्ष है । वस्तुतः जातिप्रथा वैदिक धर्म की देन है । वही एक ऐसा धर्म है जो 'जन्मना' जातिप्रथा को मानता है। जैनधर्म में उसकी नकल हुई है। यद्यपि इस धर्म में आचार की दृष्टि से भेद किया जाता है, पर उसका स्थान जन्मना जातिप्रथा ने ले लिया है। ऐसा लगता है कि इस प्रथा ने महावीर के काल में भी समाज में अपना स्थान बना लिया था। यद्यपि मूल पुराणों पर दृष्टिपात करने से इसका आभास नहीं होता कि महावीर-काल में जैन समाज में जातिप्रथा चालू हो गई थी, पर उनमें वंशों और कुलों के नाम आये हैं। अपेक्षा विशेष के कारण धर्मग्रन्थों में भी कुलों और गणों के नाम मिलते है। उदाहरणार्थ, महावीर का जन्म 'ज्ञातृक' वंश में हुआ था, इसने ही वर्तमान में 'जघरिया' नाम से एक प्रचलित जाति का रूप ले लिया है । यद्यपि जैन पुराणों में प्रचलित जातियों का उल्लेख कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता, पर उसका कारण अन्य है। अभी तक आगमों में जितने भी उल्लेख मिलते हैं, उनके अनुसार पूरा जैन संघ चार भागों में विभक्त था-मुनि, आपिका, श्रावक, श्राविका । जैन परम्परा के अनसार. इस अवसपिणी युग में समवशरण की व्यवस्था इतिहासातीत काल से ही चली आ रही है। इसमें मनुष्य, देव और तियचों को धर्मसभा में बैठने के लिये बारह कक्षों की रचना होती थी। उसमें सभी प्रकार की स्त्रियों के बैठने के लिये अलग-अलग कक्षों की रचना के बावजूद भी सभी प्रकार के मनुष्यों के लिये एक ही कक्ष निश्चित रहता था। इस आधार पर यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जैन परम्परा में तीर्थकर महावीर के बाद ही जातिप्रथा को स्थान मिल सका है। इसके पूर्व वर्तमान जातियों में से कुछ रही भी हों, तो भी समाज में धार्मिक दृष्टि से उनका कोई स्थान नहीं था। ____ इस परम्परा में जातिप्रथा के प्रारम्भ के ज्ञान के लिये हमें धार्मिक दृष्टि से लिखे गये पुराणों के अतिरिक्त अन्य जैन साहित्य पर भी दृष्टिपात करना होगा। इस दृष्टि से, सबसे पहले हमारी दृष्टि सम्यक् दर्शन के पच्चीस दोषों पर जाती है । इनमें समाहित आठ मदों में कुल और जाति मद के नाम हैं। मूल परम्परा के सभी ग्रन्थों में इनका निषेध पाया जाता है । रत्नकरंड श्रावकाचार लगभग प्रथम शताब्दि की रचना है । इसके आठ मदों में समाहित कुल-जाति मदों के निरूपण से विदित होता है कि जेनों में जाति-प्रथा इस काल से पहले हो प्रविष्ट हो चुकी थी। कुल-परम्परा ता पुराण काल में भी प्रचलित थी, इसलिये उसका निषेध तो समझ में आता है पर जातिप्रथा पुराण काल में नहीं थी। इससे यह प्रतीत होता है कि सम्भवतः इस शब्द का अर्थ ब्राह्मणादि जातियों से रहा होगा।। करने से यह स्पष्ट होता है कि जैनधर्म में जिन वर्गों को कर्म से स्वीकार किया गया है, उन्हें ही ब्राह्मण धर्म में जाति शब्द से स्वीकार किया गया है। फलस्वरूप जातिनाम और उच्च-नीच का व्यवहार लोक में चालू हो गया। जैनधर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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