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________________ ३५० पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड वर्तमान में, सामान्य जैन यह मानता है कि उसे अपना धर्म जन्मना उत्तराधिकार के रूप में मिला है । अतः उसकी धर्म में गहरी आस्था एवं प्रवृत्ति नहीं होती। यह ठीक उसी प्रकार की बात है कि जिन लोगों को पर्याप्त धन का उत्तराधिकार मिलता है, वे उसका महत्व नहीं आंक पाते। इसके विपर्याप्त में, जो अपने परिश्रम से संपत्ति अजित करते हैं, वे ही उसका सही मूल्यांकन करते हैं। उसके संरक्षण एवं अभिवर्धन के लिये दत्तचित्त रहते हैं। कवर साहब ने भी जैनधर्म को अपने विवेक से अपनाया था, अतः उन्होंने इसकी महत्ता और उपयोगिता का अपने लिये तथा समाज के लिये सदुपयोग किया। मैंने आचार्य रजनीश के एक प्रवचन में एक लघु कथा पढ़ो थी। एक बार अमरीका का सर्वाधिक सम्पन्न व्यक्ति हैनरी फोर्ड लन्दन गया। वहां स्टेशन पर उसने सर्वाधिक सस्ते होटल के बारे में जानकारी की। पूछताछ के दौरान होटल वाले ने कहा, "आपका चेहरा अमरीका के हैनरी फोर्ड के प्रकाशित फोटो से मिलता है।" हैनरी ने कहा, "हाँ, मैं वही व्यक्ति हूं।" "महोदय, पर आपके लड़के जब यहाँ आते हैं, तो सबसे महगा होटल पूछते हैं। और आप........"सबसे सस्ता होटल पूछ रहे हैं ? "मैं गरीब बाप का बेटा हूं। मैंने अपने श्रम एवं सूझ-बूझ से यह सम्पत्ति अजित की है। इसे मैं यों ही खर्च नहीं कर सकता। मेरे बेटे अमीर बाप के बेटे हैं। उन्हें बिना श्रम किये उत्तराधिकार में धन मिला है । अतः वे मंहगे होटलों में खर्च कर सकते हैं।" इस घटना से हमें शिक्षा लेना चाहिये कि उत्तराधिकार में मिले धर्म में जो अच्छाइयां या विशेषताएं हैं, उन्हें हम अध्ययन एवं विवेक से जान-पहचानें। उनके प्रति आस्थावान् बनकर अपने जीवन में उतारें। हम जन्मना तो है ही, कर्मणा भी जैन बनने का प्रयत्न करें । कर्मणा जैन बनने का विशेष महत्व है। असामयिक निधन सन् १९१० से कुंवर साहब ने निरन्तर जैनधर्म की सेवा की। इस कार्य में उनके परिवार जनों ने कोई बाधा नहीं डाली। उनकी पत्नी हिन्दूधर्म का ही पालन करती रही पर उसने उनके जैन बनने एवं उसके प्रचार में संलग्न रहने के लिये किसी प्रकार की आपत्ति नहीं की। हाँ, कुवर साहब के कारण समूचे परिवार में उदारता के बीज अवश्य पनपे। यह सही है कि उनके पुत्रों ने उनके मार्ग का अनुकरण नहीं किया। शास्त्रार्थ संघ और फिर जैन संघ में रहकर कुंवर साहब के जैनधर्म का जितना प्रचार किया, उसके प्रति जैन समाज जितनी भी कृतज्ञता व्यक्त करे, कम है।। ___ धर्मप्रचार के अतिरिक्त, उन्होंने कुछ साहित्य भी रचा था। हमारे मित्र श्री जैन ने इस साहित्य की प्राप्ति के लिये यत्न भी किया, पर वह उन्हें नहीं मिल सका। कहते हैं कि छोटी-मोटी कुल मिलाकर उनकी बाईस पुस्तकें हैं । इनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व अनुसन्धान विषय के रूप में लेना चाहिये । ऐसे कर्मठ, सेवाभावी व्यक्ति का निधन शास्त्रार्थ संघ के अम्बाला छावनी केन्द्र पर धर्मप्रचार करते हुए ७ अप्रैल १९३५ को हो गया। मेरे श्रद्धासुमन उन्हें समर्पित है । *. "जैन दर्शन" संघांक, 'वीर' के भिलाई अंक, पं० पद्मचन्द्र शास्त्री, एन० एल० जैन, डा० डी० के० जैन, भिंड आदि के लेखों-सूचनाओं एवं सहयोग के आधार पर साभार लिखित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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