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________________ ३०८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड ___ज्योतिष के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'जातक तत्व' के अनुसार, यदि मंगल और शनि ग्रह जन्म लग्न को देखते हों, तो श्वास व क्षय की व्याधि होती है। प्रस्तुत जन्मांग में लग्न मंगल से चतुर्थ होने से तथा शनि से तृतीय होकर पूर्ण पृष्ट होने से श्वास रोग की पुष्टि होती है । साथ ही, कन्या राशि में गुरु होने पर फुफ्फुस-अवरोध-जन्य विकार तथा क्षय रोग होता है। पाश्चात्य ज्योतिषी रोफीरियल के अनुसार भी, कन्याराशि में गुरु तथा तुला राशि में बुध होने पर फुफ्फुसावरोधजन्य श्वास-रोग होता है । इक जन्मांग में फुफ्फुसांग संबंधी तृतीयभाव को राशि-मकर का स्वामी शनि भावेश होकर स्वयं ही क्रूर ग्रह है तथा क्रूर ग्रह सूर्य से युक्त भी है, यह पापी ग्रह राहु से भी युक्त है तथा केतु से सप्तम होने से पूर्ण दृष्ट है । ये सभी लक्षण व्याधि की उग्रता के द्योतक हैं । ज्योतिष विज्ञान के अनुमार, ऐसी स्थिति में ग्रहों की दृष्टि की कोटि के अनुसार, व्याधि उग्र, मध्यम, मंद या मृदु कोटि को हो सकती है। ग्रहशांति के उपायों द्वारा मृदु, मद और मध्यम कोटि की व्याधि को ठीक किया जा सकता है। परन्तु उग्र या दारुण रोग को मन्द रूप में तो परिवर्तित किया जा सकता है किन्तु उसके पूर्णतः शमित होने की सम्भावना बलवती नहीं रहती। हाँ, ग्रह-प्रकोप की कालावधि व्यतीत होने पर व्याधि के स्वरूप में परिवर्तन होने लगता है। चिकित्सोपचार भी इसमें सहायक होता है। ग्रह प्रकोप की उग्र स्थिति को 'मारकेश' कहा जाता है। यह अनिष्ट का सूचक होता है । उपरोक्त रोगी का रोग उग्र अवस्था में होने से उक्त चिकित्सा के साथ ग्रहशान्ति के उपाय किये गये । इस हेतु ज्योतिष चिकित्सा ग्रंथ में वर्णित निम्न प्रकार मंत्रों के जाप किये गये : (अ) मंगल ग्रहशान्ति हेतु : ॐ अं अंगारकाय नमः ७००० जाप (ब) बुध-शान्त्यर्थ : ॐ बुं बुधाय नमः १००० जाप (स) गुरु-शान्त्यर्थ : ॐ बृं वृहस्पत्तये नमः १००० जाप (द) शनि-ग्रहशान्ति हेतु : ॐ शं शनैश्चराय नमः २३००० जाप इन जपों के अतिरिक्त धामिक शान्ति उपायों में जैन साहित्य में वर्णित कविवर मनसुखसागर-रचित 'नवग्रहारिष्ट विधान' के अनुसार (१) मंगल ग्रह शान्त्यर्थ मगल अरिष्ट निवारक श्री वासुपूज्य जिनपूजा, (२) बुध ग्रह शान्ति हेतु बुध-अरिष्ट निवारक श्री अष्टजिनपूजा, (३) गुरु ग्रह शान्त्यर्थं गुरु अरिष्ट निवारक श्री अष्टजिनपूजा तथा (४) शनि ग्रह शान्त्यर्थ शनि अरिष्ट निवारक श्री मुनिसुब्रत जिनपूजा का विधान किया गया । चिकित्सा एवं ग्रहशान्ति के प्रयासों से रोग शमन हो गया, परन्तु ग्रहों की उग्रता के कारण रोगोन्मूलन नहीं हो पाया। भविष्य में उपचार करते रहने से पूर्ण लाभ हो जाने की सम्भावना है। इस प्रकार चिकित्सा एवं ज्योतिषीय विधियों के प्रयोग के संयुक्त प्रयासों से व्याधियों के उन्मूलनकी सम्भावना बलवती प्रतीत होती है। यदि मारकेश के कारण किन्हीं ब्याधियों का उन्मूलन सम्भव न भी हो पाया, तो उनके मन्द या मृदु होने में तो कोई शंका ही नहीं है । कालान्तर में उनका शमन भी सम्भव है। कुछ और प्रयोग : इसी आशा से एक सौ रोगियों के जन्मांगों में व्याधिजनक ग्रहयोगों की स्थिति प्रमाणित हो जाने पर एवं व्याधि का निदान यथाविधि कर लेने के पश्चात् भैषजोपचार के साथ हो 'वीरसिंहावलोक' तथा 'नवग्रहारिष्टनिवारक विधान' में वर्णित मंत्र-जाप, पूजा तथा विधानों का अनुष्ठान कराया गया। इस उपचार के फलस्वरूप प्राप्त परिणामों को सारणी १ में दिया गया है। इनके प्रकाश में इस क्षेत्र में अधिक अध्ययन एवं अनुशीलन की प्रेरणा मिलती है और यह स्पष्ट होता है कि वर्तमान चिकित्सा विज्ञान में अन्य विधियों के समान ज्योतिषी चिकित्सा भी एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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