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________________ २० पं० जगन्मोहनदास शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ पंडित जगन्मोहन लाल जी ने आभिजात्य एकनिष्ठता के साथ लम्बे व्रती जीवन को आत्म निह्नव के साथ सगौरव निभाया है। सहाध्यायी अपने अतिसाहसी शार्दूल पंडित स्व० राजेन्द्र कुमार जी, आजीवन गुरुकुली, स्याद्वाद महाविद्यालय तथा जिनवाणी के अथक साधक स्व. पं० कैलाश चन्द्र जी तथा प्रवाहपतित मारवाड़ी जैन समाज के लिए प्रकाश-स्तम्भ अदम्य साहसी पं० चैनसुख दास जी के समान मध्यभारत की विगत अर्द्धशती भी पं० जगन्मोहन लाल मय है। जागरूक द्रष्टा दि. जैन महासभा के अमरावती अधिवेशन से आरब्ध ह्रास या संकोच के समान पंडित जी ने जातीय सभाओं के आरम्भ को उन्मन होकर देखा है। शिक्षा-संस्थाओं के विकास और क्षीणता को भी वे 'काल: कलिर्वा कलुषाशयो वा' मानने के साथ-साथ अंतर्मुख हो जाते हैं। वे कहते हैं कि 'कहीं हम लोगों से ही कोई भूल तो नहीं हुई है जो अपने सामने ही इनका कृष्णपक्ष देखने को विवश हैं।' किन्तु उनकी कल्पना है कि इनके साथ भी दुषमासुषमादि चलते हैं। इसी कल्पना के बल पर उनके सगुण सहयोगी सोचते हैं कि स्याद्वाद तथा सिद्धान्त विद्यालयों में ही नहीं, अपितु सागर, कटनी, साढूमल पाठशालादि में भी “अईहै फैर वसन्त ऋतु, इन डालन पै फूल।" अवश्य होगा। प्रदर्शन-प्रचार से परे अपनी दैनंदिन चर्या के समान दि० जैन समाज तथा देशचिन्ता भी पंडित जी के नित्यकृत्य हैं। समाज की बहिर्मुखता, प्रदर्शन, व्यक्तित्व प्रकाश तथा कोलाहलमय आयोजनों को भी वे देशगत वर्तमान स्थिति का प्रभाव मानते हैं। वे मानते हैं कि भारत फिर भारत होगा तथा श्रमण नहीं; अपितु श्रमण-सम्प्रदाय भी भारत की मूल बात्य-संस्कृति का अनुकरण करके आदर्श नागरिकता अर्थात् इच्छापरिमाण का आदर्श उपस्थित करेंगे। वे अपनी इस मान्यता का उपदेश न देकर इसे अपने आचरण द्वारा प्रतिष्ठित करते हैं। यही कारण है उनके सम्पर्क में एक बार आने पर, व्यक्ति और समष्टि उनके अगाध सिद्धान्त ज्ञान, प्रभावक वक्तृता तथा प्रशान्त व्यक्तित्व से अभिभूत होकर कहता है कि मैंने पहिले सम्पर्क में न आकर अपनी अपार हानि ही की है। विवेकी व्रती पूज्यवर आचार्य श्री १०८ समन्तभद्र महाराज को भी इनके ज्ञान तथा आचरण को देख कर 'भवन्ति भव्येषु हि पक्षपात:' हो गया था। आचार्यश्री ने कहा "पंडित जी प्रतिमा बढ़ाइये।" पंडित जी का विनम्र निवेदन था "महाराज, ग्रहीत ही निरवद्य नहीं निभतीं। आगे कैसे बढूं।" लगता है कि गुरुवर गणेशवर्णी के पैरों की असमर्थता के समान त्याग में भी वही आदर्श है जो इनके गुरु के दीक्षा गुरु का था। विरक्ति का उत्तरोत्तर वर्द्धमान विकास ज्ञान, ध्यान तथा इच्छा-निरोध में होने पर ही संभव है। इस व्यक्तित्व का चिरकाल तक हमें सान्निध्य रहे, इस कामना के साथ सवंदना शत-शत प्रणाम । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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