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________________ आशीर्वचन एवं शुभकामनाएं मेरे आराध्य पंडित जी श्रीन्मत सेठ रिषभकुमार खुरई, म०प्र० पूज्य पंडित जी का मेरे परिवार से मेरे पिता जी के समय से ही सामाजिक संबंध रहा है। मैंने तो उनका परिचय १९४४ में ही पाया जब खुरई में गुरुकुल की स्थापना हुई थी। इसके बाद तो १९४९ में हम व्यक्तिगत संबंधी भी हो गये। हमारे कुटुंब पर पंडित जी की कृपा, संरक्षण एवं मार्ग-दर्शन सदैव बने रहे। एक बार आचार्य समंतभद्र जी महाराज के चातुर्मास के समय पंडित जी भी खुरई रहे थे। तब मुझे पंडित जी की अगाध विद्वत्ता और प्रभावी प्रवचन क्षमता ने मोहित किया। ___ सन् १९४६ में कुरवाई में गजरथ-महोत्सव हुआ। उस समय परवार सभा का अधिवेशन भी हुआ। मैं अध्यक्ष था । मुझे स्मरण है कि पंडित जी ने पंडित देवकीनंदन जी के सहयोग से कितनी नीति एवं चतुरता से उस अधिवेशन में दस्साओं के पूजन-अधिकार का प्रस्ताव पारित कराया था। समाज के समक्ष उपस्थित यह ज्वलंत प्रश्न टल ही नहीं पा रहा था। __जैन समाज में प्रायः सभी जगह गुटबंदी और पार्टीबंदी रही है । इनके कारण कभी-कभी व्यवधान और संघर्ष की स्थिति पैदा हो जाती है। उन्हें हल करने और संघर्ष ढालने में पंडित जी में जो चतुरता और क्षमता है, वह मेरी जानकारी में अभी किसी विद्वान् में नहीं है। उन्होंने अनेक पंचायतों की गुत्थियाँ सुलझाई भौर अनेक लड़ते परिवारों में सुख-शांति स्थापित की। उनका गैन सिद्धान्त का अध्ययन निष्पक्ष एवं गूढ है। व्यवहार की समन्वयमूलक धारणा उनके 'अमृत कलश' की टीका में स्पष्ट झलकती है। आगमानुसारी बने रहना उनका उत्कृष्ट गुण है । वे ज्ञान के साथ चरित्र में भी सर्वोपरि है । जहाँ तक संभव होता है, वे किसी मुनिराज के साथ रहना पसंद करते हैं । मेरी पण्डित जी पर अटूट श्रद्धा है । भगवान् से मेरी प्रार्थना है कि हम सबके बीच रहकर धर्म और समाज की रक्षा करते रहें। चुंबकीय प्रवचनकार एवं सत्संगी मास्टर रतन चंद जैन सतना म०प्र० पण्डित जी प्रभावशाली व्यक्तित्व के महान् जैन विद्वान् हैं । वे इस वृद्धावस्था में भी जब प्रवचन करते हैं तो उनकी अमृतमयी वाणी से हृदय आह्लादित होता है और मानसिक क्लेश दूर होता है । मिथ्यात्व भागता है. भावनायें कोमल होती हैं। कटनी की शिक्षा-संस्था के प्रधानाध्यापक और प्रवचनकार पंडित जी का व्यक्तित्व कितना चुम्बकीय था, इस बात का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि मेरे पिताजी ने उनकी कन्या बिना देखे ही पंडित जी से मात्र चर्चा कर ही मेरे विवाह की स्वीकृति दे दी थी, "आपकी कन्या में आपसे भाधे गुण तो होंगे ही।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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