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________________ २३२ ५० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड में मिल जाएं और सूक्ष्मता त्याग कर चक्षु ग्राह्य बन जाये । यह प्रक्रिया तो प्रसिद्ध है परन्तु भेद से अचाक्षुष चाक्षुष हो जाये, इसकी भी सम्भावना है । इस विकल्प पर भी शोध होना चाहिये । टीकाकार के सामने जो स्थिति थी, उसके अनुसार अर्थ की जो संगति बैठाई है वह पूरी तरह ग्राह्य है । फिर भी एक दूसरी सम्भावना भी सूत्र से व्यक्त होती है जो यह सूचित करती है कि कुछ ऐसे भी स्कन्ध हो सकते हैं जो अचाक्षुष हों पर उनमें यदि भेद हो जाये तो, वे चक्ष ग्राह्य हो सकते हैं । उदाहरण से विचार करें, रेत और चूना दोनों पारदर्शक नहीं है पर जब दोनों के योग से कांच बनता है तो वह पारदर्शक हो जाता है। प्रथमानुयोग में अंजन चोर की कथा है जो अंजन गुटिका का लेप करने पर संयुक्त अवस्था में अदृश्य (अचाक्षुष) हो जाता था और उस गुटिका के अलग होने पर दृष्टव्य (चाक्षुष) हो जाता था। इस प्रकार का जो संभावित अर्थ है उसका परीक्षण भी विज्ञान से होना चाहि । मिले हुए स्कन्ध यन्त्रों की पकड़ में आ सकते हैं जो अचाक्षुष हो। रासायनिक प्रक्रिया से उनका भेद करने पर उनके चाक्षुष होने को क्या कोई सम्भावना है, यह भी देखना चाहिये । ७. वेदनीय कर्म जीव विपाकी है या पुद्गल विपाकी कर्मकाण्ड में वेदनीय कर्म को जीव विपाकी माना गया है। मोह के बल पर जीव उसके उदय में दुःख का वेदन करता है। वेदन जीव को होता है, अतः इसका जीव विपाको होना स्वाभाविक है, प्रसिद्ध है। आठवें अध्याय के आठवें सूत्र की टोका में टीकाकार के शब्द हैं : यदुदयात् देवादिगतिषु शरीर-मानस सुखप्राप्तिः तत् सवेद्यम् । यत् फलं दुखमनेकविधं तत् असत्वेद्यम् । अर्थात् जिसके उदय से देव आदि गतियों में शारीरिक और मानसिक सुख प्राप्त हो, वह साता वेदनीय है और जिसका फल विविध प्रकार के दुःख है, वह असाता वेदनीय है । साता के उदय में धन, सम्पत्ति, संतति की प्राप्ति होती है, यह उपचरित कथन है, क्योंकि कम का संश्लेष सम्बन्ध आत्मा से है। उदय भी आत्मा में है। वह कर्म सुख-दुःख की सामग्री का संचय नहीं कर सकता। जीव उस सामग्री के संचय में सफल हो सकता है किन्तु इस प्रसंग में धवला भाग ६ सूत्र २८ में कुछ ऐसा ही प्रश्न उठाया है कि क्या वेदनीय जोव विपाकी की तरह पुद्गल विपाकी भी है ? उत्तर में कहा गया है कि 'इष्ट है'। इस उत्तर के समर्थन में जो हेतु दिया है, वह विचारणीय है। उत्तर का समर्थन इस हेतु द्वारा किया गया है-'सुख-दुःख के हेतु द्रव्य के सम्पादन करने वाला अन्य कर्म नहीं है, इस हेतु से इसे पुद्गल विपाको कहा' । विचार यह है कि पुद्गल विपाकी तो देह विपाकी है। उसका फल तो देह के आकार-प्रकार आदि पर होता है। सुख के साधन धन, स्त्री, पुत्र आदि पर नहीं होता । अतः पुद्गल विपाकी की अन्यत्र क्या-क्या व्याख्याएँ हैं. इन पर विचार करना सार्थक हो सकता है । ८. गोत्र कर्म की व्याख्या आठवें अध्याय में बारहवें सूत्र की टीका में आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं : . यदुदयात् लोकपूजितेषु कुलेषु जन्म तदुचेर्गोत्रम् । यदुदयात् गर्हितेषु कुलेषु जन्म तन्नोचैगंत्रिम् ।। जिसके उदय से लोक पूजित कुल में जन्म हो, वह उच्च गोत्र है तथा जिसके उदय से निन्दित कुल में जन्म हो, वह नीच गोत्र है। गोमटसार कर्मकाण्ड की व्याख्या यह है-'सन्तान क्रम से आया हआ जोव का आचरण गोत्र कहलाता है। उच्च आचरण उच्च गोत्र है तथा नीच आचरण नीच गोत्र है। 'सूत्र की व्याख्या में पूजित कुल को उच्च गोत्र और निन्दित कूल को नीच गोत्र कहा गया है। पर गोमटसार में ऊंचे आचरण को उच्च गोत्र और नीच आचरण नीच गोत्र माना गया है। यहाँ कुछ प्रश्न उत्पन्न होते हैं: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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