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________________ १७८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड .. क्रियायोग: आत्मशक्ति को बढ़ाने के लिए __ ऐसे सात्विक लोग बहुत कम संख्या में होते हैं जिनके व्यक्तित्व में पूर्ण सामंजस्य को स्थिति रहती है । राजसिक प्रवृत्ति के लोग अधिक होते हैं। उनका जीवन अंतद्वंद्वों से घिरा रहता है। तामसिक प्रवृत्ति के लोग बहुसंख्यक होते हैं जो यह भी नहीं जानते कि उनके मन में अंतर्द्वन्द्व चल रहा है। इसलिए योग की क्रियायें अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग होती है। जिन व्यक्तियों को बहुत कम अंतर्द्वन्द्वों से जूझना पड़ता है और जिनकी मानसिक स्थिति सामंजस्यपूर्ण है, उनके लिए "ध्यान योग" की क्रिया उपयुक्त है। वे किसी एक विचार बिन्दु पर ध्यान एकाग्र कर सकते हैं। जिन व्यक्तियों के जीवन में द्वन्द्व ही द्वन्द्व भरे हुए हैं, वे एक ही विचार बिन्दु पर एकाग्र नहीं हो सकते । अगर उन्हें चित्त को एकाग्र करने के लिए बाध्य किया जायेगा तो उनके सामने कोई मानसिक समस्या उत्पन्न हो जायेगी। ऐसे लोगों की सोई हुई आत्मशक्ति को जगाने के लिए क्रियायोग की छोटी-छोटी सुगम क्रियाएँ उपयुक्त होंगी । इस युग को ए और आज की मानवता के लिए क्रियायोग एक अनिवार्य साधना है, क्योंकि अधिकांश लोग ऐसे है, जो अपने ध्यान को एकाग्र नहीं कर सकते । ऐसे लोगों के मन को राजसी प्रवृत्तियों ने और दुर्व्यसनों ने इतना जकड़ लिया है कि चाहने पर भी उनमें एकाग्रता और स्थिरता नहीं आ पाती। अनजाने में ही मनुष्य ने इन दुव्यवसनों के प्रवाह में अपने को डाल दिया है, परन्तु यह मानवता की नियति नहीं है । उसे अपने-आपको इस स्थिति से निकाल कर एक उच्च मानसिक स्थिति तक ले जाना है। मनुष्य को ऐसा करना ही होगा। आज नहीं तो १० या २० हजार वर्षों की अवधि में या उससे भी अधिक १० लाख वर्षों में उस अपने-आपको इस वर्तमान स्थिति से निकालना ही हागा। मनुष्य की चेतना के माध्यम से प्रकृति का क्रमविकास हो रहा है। क्रियायाग से इस क्रमविकास को गति में तेजी आयेगी। तब मानव यहीं, इसी धरतो पर अपने उच्चतम मन की स्थिति ( जो अस्तित्व की सर्वोच्च अवस्था है) का स्वयं अनुभव करेगा। प्रसन्नता और स्वास्थ्य चाहे मनुष्य को कोई शारीरिक व्याधि न हो, तथापि हम उसे स्वस्थ मनुष्य नहीं कह सकते । हो सकता है, उसे घबराहट हो, वह चिन्ताग्रस्त हो या अशान्त हो । शारीरिक स्थिति से स्वास्थ्य का पता नहीं लगाया जा सकता-यह योग का एक मुख्य सिद्धान्त है । कोई व्यक्ति शारीरिक रूप से पूर्ण स्वस्थ होकर भी बहुत दुःखी हो सकता है। क्या आप एक बहुत दुःखो मनुष्य को स्वस्थ कहेंगे ? क्या अप्रसन्नता अपने आप में एक बीमारी नहीं है ? और विचारों के बारे में आपका क्या ख्याल है? किस तरह आप स्वस्थ विचारों का संग्रह करेंगे? किस तरह से आप हादिक प्रसन्नता का संचय करेंगे ? मन शान्त, निरुद्वेग और आनन्द से परिपूर्ण रहना चाहिए। यह योग का दूसरा मुख्य सिद्धान्त है। आपके पास खाने के लिए बहुत है, रहने के लिए अच्छा मकान है और खर्च करने के लिए बहुत रुपया है, फिर भी आप अज्ञान के अनन्त अंधकार में डूबे हुए हैं और बाहर निकलने के लिए रास्ता खाज रहे हैं। क्या अविद्या हो मनुष्यमात्र की सभी बोमारियों की जड़ नहीं ह ? याग के अनुसार, मनुष्य एक साथ ही दस प्रकार के स्तरों में निवास करता है, जिनमें शारीरिक, मानसिक, अतीन्द्रिय, कारण आर आध्यात्मिक स्तर मुख्य है। क्रियायोग, राजयोग, हठयोग और योगनिद्रा द्वारा हम एकसाथ, एक हा समय में इन स्तरों पर रह सकते है। योग ने मानवता को क्या दिया है और क्या देने वाला है ? समूचे संसार में सैकड़ों-हजारों लोग योग की साधना कर रहे है और असाधारण तथा असाध्य बीमारियों से छुटकारा पा रहे हैं । इस संसार में और आज के इस समाज में रहने के लिए वे नये तरह से अपना मानसिक विकास कर रहे हैं । योग उन्हें अपने जीवन के विकास के लिए नयी आशा प्रदान करता है ।जो लोग शरीर की अस्वस्थता के कारण जीवन की सारी खुशियां खो चुके थे, वे आज पूर्णरूप से स्वस्थ और प्रसन्न हैं। आज विश्व में, हजारों योग संस्थाएं हैं, योग शिक्षक हैं और योग के छात्र हैं। योग ने मानवता को क्या दिया है ? एक नया धर्म ? एक नया पंथ ? नहीं, योग ने दिया है एक ऐसा विज्ञान जिससे मनुष्य अपने मन के रूपान्तरण का अनुभव कर सके। हाँ, सही अथों में मानवता के लिए योग का यही योगदान रहा है और रहेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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