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________________ [ खण्ड १४० पं ० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ ध्यानाभ्यास की दृष्टि से, शरीर की यह अन्तःशक्ति या प्राणशक्ति शास्त्रीय तैजस शरीर का एक रूप है । यही शरीर और मस्तिष्क को अनेक प्रकार से प्रभावित कर उसकी क्षमता में वृद्धि करती है । जब मस्तिष्क प्राणवान् होता है, तब मनःशक्ति का अनुभव होता है। जब शरीर प्राणवान् होता है, तब प्राणशक्ति अभिव्यक्त होती है । इन दोनों के सम्पर्क में आने से सांद्रण सेल ( मस्तिष्क में आक्सीजन की अधिकता, अन्य तन्त्रों में इसकी सामान्य मात्रा ) बनता हैं। इससे विद्युत् ऊर्जा उत्पन्न होती है । इसे ही शरीर विद्युत कहते हैं । इसे शरीर के किन्हीं दो भिन्न और विशिष्ट केन्द्रों में इलेक्ट्रोड लगाकर यन्त्रों द्वारा सम्पर्कित कर परखा जा सकता है। इस सम्पर्क को इडा-पिंगला नाड़ियों के सम्पर्क के रूप में अनेक शास्त्रों में वर्णित किया गया है। इस विद्युत के कारण शरीर में किंचित् चुम्बकीय गुण भी आ जाते हैं । शरीर तन्त्र में व्यक्त होने वाली इन विभिन्न शक्तियों (प्राण, मन, विद्युत आदि) का समवेत रूप ही आधुनिक दृष्टि से चेतना शक्ति के समकक्ष माना जा सकता है । इसे शास्त्रीय जन शायद ही स्वीकार करें। ध्यान इस चेतना शक्ति का संवर्धन एवं केन्द्रण करता है। मन और शरीर की असामान्य उत्तेजन या भावनात्मक दशाओं में तन्त्र के इन विद्युत और चुम्बकीय गुणों में न्यूनाधिकता होती रहती है। ध्यान इसे भी नियन्त्रित करता है । वैज्ञानिक परीक्षणों का निष्कर्ष और ध्यान को उपयोगिता ध्यान पर विभिन्न दशाओं में किये गये प्रयोग स्पष्ट करते हैं कि यह शरीर तन्त्र का शोधन कर उसकी सक्रियता बढ़ाता है । वह मानव में असामान्य ऊर्जा की वृद्धि करता है । ध्यान के समय सामान्य कर्म, प्रवृत्ति, प्रयत्न शान्त होते हैं, विश्रान्ति रहती है पर विशिष्ट कर्म करने की क्षमता में आशातीत वृद्धि होती है । हमारे शास्त्र और आचार्य ध्यान का लक्ष्य परा - इन्द्रिय बोध एवं अध्यात्म ही प्रमुख मानते । वैज्ञानिक विचारधारा के अनुसार ये अनुभूतियाँ या लब्धियाँ शारीरिक या मानसिक विकास के ही ऊध्वंमुखी रूप हैं । इसीलिये उत्तरवर्ती जैनाचार्यों ने शारीरिक और मानसिक ऊर्जाओं को ऊर्ध्वमुख करने वाले सभी प्रकमों को ध्यान में समाहित किया है। ध्यान के अनेक लाभ इन प्रक्रमों के आनुषंगिक फल हैं । इस प्रकार, शास्त्रीय विवरण ध्यान के जिन तत्वों को प्रमुख मानता है वैज्ञानिक उन्हें आनुषंगिक मानकर और भो अधिक लाभान्वित होता है । पठनीय सामग्री १ योग विद्या (१९७८ - ८३ ); विहार योग विद्यालय, मुंगेर ( बिहार ) । २. हिन्दुस्तान टाइम्स, ५ जुलाई १९८७ | ३. युवाचार्य महायज्ञ : प्रेक्षा ध्यान का यात्रापथ : जन विश्व भारती, लाडनूं, १९८४ । ४. उग्रादित्याचार्य : कल्याणकारक, सखाराम नेमचन्द्र ग्रंथमाला, शोलापुर, १९४० । ५. युवाचार्य महायज्ञ आभा मंडल, जैन विश्व भारती, लाडनू १९८४ । ६. सी० एच० बेस्ट ऐण्ड एन० बी० टेलर; दी फिजियोलोजिकल बेसिस आव मेडिकल प्रेक्टिस, साइंटिफिक बुक एजेन्सी, कलकत्ता, १९६७ । ७. आचार्य रजनीश; रजनीश ध्यान योग, रजनीश धाम, पूना, १९८७ । ८. पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री; जैन शास्त्रों में वैज्ञानिक संकेत, ( इसी ग्रंथ का विज्ञान खंड ) | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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