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________________ ध्यान का वैज्ञानिक विवेचन १३९ विश्रान्ति के कारण भी बढती है । इसकी प्रबलता ही स्पर्श-चिकित्सा के प्रभाव का मूल कारण है । यह पाया गया है कि प्रबल प्राणशक्ति के स्पर्श से रोगी के रक्त में होमोग्लोबिन की मात्रा बढ़ जाती है । ध्यान का एक अन्य उद्देश्य भी है जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। उपरोक्त प्रक्रिया में प्राणशक्ति की वृद्धि एवं संचय मात्र हुआ है । यही हमारे जीवन की, मन, वचन और शरीर की संचालक शक्ति है। जीवन की विविध दिशाओं में इतनी भिन्नता है कि कभी-कभी तो समुचित संतुलन हेतु शरीर में विद्यमान प्राणशक्ति को कमी का अनुभव होने लगता है । ध्यान इस कमी को दूर करता है । वह प्रवृत्तियों की विविधताओं पर नियंत्रण करता है और एक विशिष्ट दिशा देता है। इससे अनावश्यक शक्ति के व्यय में बहुत कमी हो जाती है और हमारा जीवन सदैव शक्ति संपन्न बना रहता है । यह माना जाता है कि हमारा मस्तिष्क शरीर का दो प्रतिशत भाग ही है, पर वह अपनी विविध क्रियायें संपन्न करने में शरीर की समग्र ऊर्जा का बीस प्रतिशत तक व्यय करता है। ध्यान के अभ्यास से विचारों की विविधता समाप्त होकर एकलक्ष्यी निविचारता आती है । इस स्थिति में शक्ति का व्यय कम होता है । इस प्रकार शक्ति-संवर्धन तथा शक्ति-व्यय में अप्रत्याशित कमी से प्राणी में अद्भुत अवस्था विकसित होती है। उमास्वाति का 'लब्धि प्रत्ययं च सूत्र संभवतः इसी शक्तिसंपन्नता की अभिव्यक्ति को व्यक्त करता है। प्राण शक्ति और तैजस शरीर जनों ने पांच शरीर माने हैं-औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्मण। इनमें तैजम और कामंण शरीर सूक्ष्म और अदृश्य होते हैं । निर्बाण प्राप्ति के पूर्व ये सदैव जीव-संबद्ध रहते हैं । शरीरों का यह नाम क्रम उत्तरोत्तर सूक्ष्मता के आधार पर यह माना जाता है । यह क्रम प्रथम तोन शरोरों के लिये तो ठीक है, पर अन्तिम दो सूक्ष्म शरीरों के लिये विचारणीय लगता है। तैजस शरीर को सही रूप में समझने के लिये शास्त्रो ने भी कुछ प्रश्न लगाये है। यह माना जाता है कि यह तेजोरूप है. ज्वाला ( ऊर्जा ) रूप है, परमाणु प्रचयित ( कणिकामय ) होने पर सूक्ष्मतर है। .. कार्मण शरीर इससे भी अनंतगुना सूक्ष्मतर है । शास्त्रों में प्रायः सर्वत्र ही कामंण शरीर को परमाणु-प्रचय रूप ही माना है । महाप्रज्ञ और अन्यों ने तैजस शरीर की ऊर्जात्मक रूप में ही व्याख्या की है। यह ऊर्जा ऊष्मा, प्रकाश या विद्युत्किसी भी रूप में हो सकती है। इसके विपर्यास में कार्मण शरीर को तेजोरूप नहीं माना जाता। आइन्स्टीन के समीकरण ( ऊर्जा-द्रव्यमान प्रकाशवेग का वर्ग = mc ) के अनुसार, विभिन्न ऊर्जाओं का द्रव्यमान, औसत तरंग-दध्यं के आधार । पर इलैक्ट्रान-जैसे सूक्ष्म कण से अल्पतर (10-21-10-35g) परिकलित होता है । फलतः द्रव्यमान के आधार पर विभिन्न ऊर्जायें या तैजसरूप सूक्ष्मतर होती हैं । ये परमाणु के सूक्ष्मतर मौलिक अवयवों-फोटानों के रूप है। विस्तार के आधार पर भी ये कणिकायें इलेक्ट्रान कों से सूक्ष्मतर होते हैं। प्रकाश, ऊष्मा और ध्वनि को तुलना में कामण शरीर की कणिकायें वृहत्तर होनी चाहिए। अन्यथा ये तैजसरूप में ही समाहित हो जाती । फलतः तैजस और कामण शरीर की शास्त्रीय सूक्ष्मता का आधार द्रव्यमान है या विस्तार, यह स्पष्ट नहीं है । आधुनिक भौतिक दृष्टि से तैजस ऊर्जायें कामण से सूक्ष्मतर मानी जाती हैं। यह प्रश्न उठता है कि पहके कामंण शरीर होता है या तैजस शरीर ? वस्तुतः ये दोनों अन्यान्याश्रित है । एक-दूसरे के प्रेरक और जन्मदाता है। ध्यानी कहते हैं कि तैजस शरीर प्राणशक्ति या शारीरिक अन्तःक्रियाओं में उत्पन्न होने वाली ऊर्जाशक्ति है। अतः जबतक शारीरिक अन्तःक्रियायें नहीं होती, प्राणशक्ति का उत्पादन या विकास नहीं हो सकता । अतः लगता है कि कार्मण शरीर तैजस शरीर का पूर्ववर्ती होना चाहिये। यह मान्यता, फलतः सही लगती है कि पर्याप्ति प्राण का कारण है। पर्याप्तियों को कार्मण शरीर के समकक्ष मानना चाहिये । पर्याप्ति स्वयं शक्तिरूप नहीं, अपितु प्राणशक्ति की जन्मदात्री है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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