SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्यान का वैज्ञानिक विवेचन डा० ए० कुमार, एम० डी० (मेडीसिन) मंडला, (म०प्र०) भारतीय पद्धति में ध्यान आध्यात्मिक विकास की एक सर्वमान्य प्रक्रिया है । विभिन्न दर्शनों में इसे विविध नाम-रूपों से निरूपित किया गया है । "ध्यै' संप्रसारणे या प्रवाहे से यह प्रकट होता है कि इसका एक ध्येय तो शरीरतन्त्र में प्राणों के, वायु के, प्राणशक्ति के प्रवाह की तीक्ष्णता एवं एकतानता है। इसके अनेक लाभ शास्त्रों में वर्णित हैं। ये मानसिक एवं आध्यात्मिक कोटि के माने जाते है । वस्तुतः मन या मस्तिष्क, (जिसे जैन द्रव्यमन कहते हैं) शरीर का ही एक घटक है। यह सुज्ञात है कि शरीर तथा मन का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । अतः शरीर प्रभावी प्रक्रियाएं मन को स्वतः प्रभावित कर उसकी वृत्तियों में परिवर्तन उत्पन्न करतो हैं । आधुनिक मनोविज्ञान ने मानसिक वृत्तियों के कारण, उन्हें विकसित करने या सुधारने के उपाय तथा मानसिक विकृतियों को दूर करने की प्रक्रियाएँ विकसित की हैं। फिर भी, प्राच्य योगी यही मानते है कि ध्यान योग वहीं से प्रारम्भ होता है, जहां मनोविज्ञान का अन्त होता है। यह ठीक वैसे ही है, जैसे धार्मिक जन यह मानते हैं कि धर्म वहीं से प्रारम्भ होता है, जहां विज्ञान के क्षेत्र का अन्त होता है । विज्ञान एवं मनोविज्ञान के लाभों को स्वीकार करते हुए भी इन दोनों के क्षेत्रान्त एवं धर्म-क्षेत्र/ध्यान-क्षेत्र के प्रारम्भ के बीच इनको सम्पकित करने वाली कोई कड़ी होती है, ऐसा नहीं लगता। दोनों का उद्देश्य परिवर्तित हो जाता है-लौकिक से लोकोत्तर, दृश्य से अदृश्य और सूक्ष्म से सूक्ष्मतर । अतः, सम्भवतः, सम्पर्क कड़ी का प्रश्न ही नहीं उठता।। वर्तमान युग में भारतीय योगियों की यह मान्यता है कि ध्यान की एकाग्रता मनोवृत्तियों के नियंत्रण, रूपान्तरण एवं समभाव के लिये अधिक उपयोगी है। उनके अनुसार, ध्यान केवल मानसिक या आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया मात्र नहीं है, यह शरीर-तंत्र के शोधन एवं मार्गान्तरीकरण की प्रक्रिया भी है। अतः ध्यान शरीर, मन और भावनाएँ तथा अध्यात्म-तोनों दिशाओं में लाभकारी है। इसका प्रभाव शरीर से प्रारम्भ होता है और आत्म-विजय तक जाता योगी केवल वानप्रस्थों, संन्यासियों, साधुओं या साधकों को हो ध्यान का अधिकारी नहीं मानता, वह तो बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक के लिये ध्यान के अभ्यास की प्रेरणा देता है। उसका तो यह भी कथन है कि अस्सी वर्ष से अधिक उम्र वालों के लिये ध्यान ही एकमात्र औषध है । वह ध्यान को हलुवे में चीनी, सब्जी में नमक एवं छोले में मसाले के समान जीवन को परिपूर्ण एवं सुखी बनाने का उत्तम उपाय मानता है। वह मानता है कि बीसवीं सदी की निरन्तर तनावपूर्णता से त्राण पाने एवं नीतिपूर्ण जीवन बिताने के लिये ध्यान-योग हो एक उपाय है। जो काम औषधियाँ नहीं कर सकतीं, वह ध्यान करता है। ध्यान की यह उपयोगिता उसकी व्यापक परिभाषा पर निर्भर है। इसके अन्तर्गत आसन, प्राणायाम तथा एकाग्रता के अभ्यास समाहित हैं। जैनों ने आसनों को तो महत्व दिया है, पर प्राणायाम को गौण माना है। इस मत में संशोधन होना चाहिये । विभिन्न प्राणायाम शारीरिक होते हुए भी शरीर-शुद्धि एवं मस्तिष्क-शुद्धि कर उसे ध्यानाभिमुखी बनाते है । यही अन्तःशक्ति के प्रस्फुटन का स्रोत है।। ध्यान के शास्त्रीय लाभों को सामान्य-जन तक पहुँचाने के लिये अनेक सन्यासियों एव संस्थाओं द्वारा प्रयास किये जा रहे है। भारत में अनेक स्थानों पर ( बम्बई, लोनावला, मुंगेर आदि ) ध्यान की प्रक्रिया और प्रभावों पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy