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________________ ११८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड ध्यान के अधिकारी हैं । कुन्द-कुन्द ने कहा है कि योगी ही ध्यान कर सकते हैं। इसका कारण उनके आत्मिक विकास की क्षमता एवं कोटि ही है । शुभचन्द्र के अनुसार ध्याता उत्तम, मध्यम और जघन्य कोटि के हो सकते हैं। सामान्यतः ध्याता को ज्ञानी भी होना चाहिये । प्राचीनकाल में दशपूर्वधरों एवं बीजबुद्धि धारकों को परमध्यानी माना जाता था । वर्तमानकाल में पांच समिति व तोन गुप्ति वाले केवल तीसरे ध्यान के अधिकारी है। सामान्य गृहस्थ, मिथ्यादृष्टि, अस्थिरमति मुनि, अठारह विक्रियाओं के अभ्यासी तथा कंदी आदि पंच भावनाओं की मनोवत्ति के लोग ध्यान के अधिकारी नहीं होते। यह तो पता नहीं कि आगमकाल की ईसापवं सदियों में ऐसे प्रतिबंध थे या नहीं, पर वर्तमान में इन प्रतिबंधों पर पुनर्विचार आवश्यक है । सभी कोटियों के व्यक्ति अनशन-आदि वाह्य तप तो करते ही हैं जो अन्तरंग तप एवं ध्यान के लिए मार्ग प्रशस्त करते हैं । वस्तुतः तप और ध्यान की प्रक्रिया उन लोगों के लिए आवश्यक प्रशिक्षण का कार्य करेगी जिनका चित्त एवं क्रियाएं बहुमुखतः चलायमान रहती हैं। उन्हें ही संसार की दुःखमयता को वृत्ति को सुखमयता की ओर परिवर्तित करना है । वस्तुतः इस विषय में गृहस्थ की भर्त्सना अनुचित ही कही जायेगी। यह कथन धर्म और शुक्ल ध्यान की दृष्टि से मानने पर भी द्रव्य संग्रह में तो गृहस्थ को अपवादरूपेण धर्म ध्यान स्वीकृत किया ही गया है। फिर गृहस्थ तो साधुओं का पालक, रक्षक, संवर्धक और नियन्त्रक है । वही तो आगे चलकर साधु होने वाला है। आत-रोद्र ध्यानी गहस्थ के लिए साधओं के प्रति ये कर्तव्य कैसे सम्भव है ? क्या वह साधुओं को समध्यानी नहीं बनायेगा जैसा आज हो रहा है। उमास्वामी ने सम्यक दष्टि, श्रावक एवं अती की निर्जरा का संकेत दिया है। यह निजरा बिना तप और ध्यान के कैसे होगी? यह माना जाता है कि अकाम निर्जरा सभी को हो सकती है, पर सकाम निर्जरा (कर्मक्षय हेतुक) साधु को ही होती है। अकाम निर्जरा के अन्तर्गत इहलौकिक, पारलौकिक, यश-कीति प्रेरित उद्देश्यों से किये गये तप और ध्यान आते हैं। यह मिथ्या दृष्टि-सहित सभी को हो सकती है। अतः वह भी ध्यान का अधिकारी है। प्रेक्षाध्यान या योग को दृष्टि से तो आजकाल तप के विभिन्न रूपों के अभ्यास द्वारा अपराधियों की मनोवृसियों में परिवर्तन, बालकों में नैतिकता व सक्रियता का विकास. सेवा निवत्ति. सामान्य या जीवन से निराश व्यक्तियों में जीवन के प्रति उत्साह एवं लक्ष्य के प्रति जागरूकता आती है। अतः उपरोक्त प्रतिबन्धों में किंचित् सुधार की आवश्यकता है। यह अवश्य है कि सभी लोग ध्यान के उच्चतर चरणों को अभ्यास से ही पा सकते हैं। इस प्रतिबन्ध के विषय में यह कहा जा सकता है कि ये मात्र धर्म और शुक्ल ध्यान के क्षेत्र में लाग होते हैं. आतं एवं रौद्र ध्यान पर नहीं। पर द्रव्य संग्रह के टीकाकार के समान ज्ञानार्णव के टीकाकार ने भी गृहस्थों के धर्म ध्यान उत्सर्गतः ही माना है। वस्तुतः ध्यान कोई भी हो, उसकी प्रक्रिया तो वही है। ये दोनों ध्यान ऐहिक उद्देश्यों के लिये किये जाते हैं। संभवतः इन ध्यानों के दुरूपयोग के कारण उपरोक्त प्रतिबन्ध लगाये गये हों। लेकिन इन प्रतिबन्धों से साधना मार्ग कुंठित हो गया और आज उसके पुनरुद्धार की आवश्यकता आ पड़ी है। इसीलिये शास्त्री ने उमास्वामी की ध्यान-परिभाषा के सूत्र की उपयुक्तता पर प्रश्न चिह्न लगाया है। इन प्रतिबन्धों के निराकरण से समाज, शायद, अधिक लाभान्वित हो सके। (ii) स्वस्थता या संहनन का आधार यह सुज्ञात है कि ध्यान के लिये विशिष्ट आसन, समय तथा मनोवृत्ति की आवश्यकता होती है । आसन की स्थिर-सुखी परिभाषा के बावजूद भी सामान्य आसन ध्यान मुद्रा का प्रेरक नहीं। इसके लिये कुछ विशिष्ट आसन आव. श्यक हैं। इन आसनों को विशिष्ट समय तक ग्रहण करने का अभ्यास चाहिये। यह अभ्यास केवल वे ही कर सकते हैं जिन्हें समचित वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम है। इन आसनों के लिये शरीर स्वस्थ और बलवान होना चाहिये । इसीलिये शास्त्रों में उसी को ध्यान का अधिकारी बताया गया है जिनके शरीर के अस्थिबन्ध, स्नायुबन्ध, एवं नाडीबन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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