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________________ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ पाश्चात्य विद्वानों के अतिरिक्त इस सदी के प्रारम्भ में श्री जुगमन्दिरलाल जी ने जैनधर्म का समुचित अध्ययन कर विदेशों की हमारा मूल साहित्य विदेशियों की भाषा में न होगा, हम उनके लिये करेंगे, हमारे धर्म की प्रसार प्रभावना नहीं हो सकती । लोकप्रिय व्याख्यान तो रुचि मात्र उत्पन्न करते हैं । एतदर्थ उन्होंने अंग्रेजी में अनेक पुस्तकें ( की बाव नोलेज आदि ) लिखों, अनेक ग्रन्थों के अनुवाद प्रकाशित कराये, अंग्रेजी में 'जैन गजट' जैसी पत्रिकायें प्रकाशित कीं । लन्दन में रिषभ जैन लाइब्रेरी' स्थापित की, भारत में भी इसी हेतु 'जैन एकेडेमी आव विजडम और कल्चर' की स्थापना की। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने ट्रस्टों का भी निर्माण कराया । श्री चंपतराय जी के जीवनकाल में उत्साही नव-शिक्षित अधिकारियों का एक दल ही विकसित हुआ जिसके सदस्योंजे० एल जैनी, बाबू कामता प्रसाद जी, ब्र० शीतल प्रसाद जो और अजित प्रसाद जैन बादि ने सुविचारित रूप से इस प्रचार योजना को चलाया। समुचित साहित्य निर्मित किया, लघु पुस्तिकायें प्रकाशित को और विश्व के अनेक भागों में इनका वितरण किया । "विश्व जैन मिशन" नामक संस्था के माध्यम से बाबू कामता प्रसाद जी ने इस frer में दुर्धर कार्य किया। उन्होंने 'वायस आब अहिंसा' पत्रिका द्वारा विश्व में जैन संस्कृति को उद्घोषित किया । ब्र० शीतल प्रसाद जी भी इसी हेतु कुछ एशियाई देशों में गये थे । ८४ [ खण्ड ख्यातनाम वकील की चम्पतराय जी तथा यात्रा की। उन्होंने अनुभव किया कि जब तक लोकप्रिय साहित्य का निर्माण एवं वितरण न चंपतराम - युग के मूर्धन्य बाबू जी ने १९२४ - ६४ के वोच लगभग १०१ पुस्तकें लिखीं एवं अनुदित कीं । इन्होंने जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, कनाडा आदि के अनेक विद्वानों को जैन विद्याओं के अध्ययन हेतु प्रेरित किया । उन्होंने रिषभ जैन लाइब्रेरी, लंदन तथा बडगोंडेसवर्ग, (जर्मनी) के राजकीय पुस्तकालय में अमूल्य जैन साहित्य की पूर्ति की और उन्हें जीवनदान देने का प्रयत्न किया। उन्हें अपने अन्तिम समय तक इस बात का दुख रहा कि दिगंबर समुदाय इस दिशा में न तो रुचि ही ले रहा है और न हो इस क्षेत्र में कार्य करने वालों को समुचित सहयोग ही कर रहा है । इसका अनुभव मेरे एक संबंधी को भी हुआ । स्व० बाबू जी ने १९६१ में उन्हें उनकी विदेश अध्ययन यात्रा के दौरान उक्त दोनों केन्द्रों को पुनर्जीवित करने हेतु उपाय सुझाने के लिये संकेत दिये थे । उन्होंने इन दोनों केन्द्रों को देखा । लन्दन की रिषभ जैन लाइब्रेरी इसलिये बन्द पड़ी थी कि उसके कार्यकर्ता के लिये वेतन की व्यवस्था नहीं थी । उसका एक ट्रस्ट था, पर उसमें इतनी अल्प राशि यो कि उससे कुछ ही समय में संस्था बन्द हो गई । उसकी बकाया राशि का भुगतान उन्होंने ही श्री के० पी० जैन, दिल्ली को करवाया आ० बाबू जी ने अनेक लोगों से इस पुस्तकालय को चलाने हेतु आर्थिक सहयोग ( उस समय लगभग २०० रु० माह अर्थात् प्रायः २५,००० रु० का ध्रौव्यफंड ) के लिये कहा पर । इसी प्रकार बडगोडेसबर्ग के राजकोय पुस्तकालय में जैन साहित्य के कोई ५०० ग्रन्थ थे, पर आलमारी एक ही थी । वहाँ के पुस्तकालयाध्यक्ष ने उनसे कहा कि आप हमें इस साहित्य हेतु १-२ आलमारिया और दिला दें, आपकी समाज तो धनिक है। इस विषय में भी बाबू जी के प्रयत्न सफल नहीं हुए। बाबू जी ने अपना तन-मन-धन न्यौछावर कर यह काम प्रारम्भ किया था, पर अन्तिम दिनों में समाज को उपेक्षा एवं असहयोग से वे बड़े निराश रहे । उनकी मृत्यु के बाद उनके कार्य को डा० ज्योति प्रसाद जैन, डा० महेन्द्र प्रचण्डिया और श्री ताराचंद्र वख्शी जी चला रहे हैं, पर स्वप्न दृष्टा का स्वप्न अभी भी अनाकार है -- आत्मधर्मी दिगम्बरों को संभवतः यह बात पसन्द न आई हो कि समुन्दर पार के तथाकथित अनार्य उनकी संस्कृति को जानें- समझें । इस युग में विदेशों में धर्मप्रचार के कार्य का बीड़ा उच्चशिक्षित जैन व्यवसायी व अधिकारी वर्ग ने उठाया था । इसमें दिगंबर समुदाय प्रमुख रहा । पर जिस उत्साह से यह कार्य शुरू हुआ था, वह अनवरत न रह सका । ६०-७० के दशक में 'जैन मिशन' के कार्य को छोड़कर अन्य कोई उल्लेखनीय प्रवृत्ति इस दिशा में नजर नहीं आई। हाँ, कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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