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________________ २] बिदेशों में जैन धर्म का प्रचार-प्रसार ८३ सम्यक्त्व के प्रति आकृष्ट करना सेद्धान्तिक दृष्टि से तो धार्मिक नहीं ही माना गया। अतः, अपवादों को छोड़कर, इसके प्रसार प्रचार की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। इसके दो परिणाम तो स्पष्ट ही लक्षित हए : (i) अधिकांश जैन स्वयं अपने विषय में जानकारी रखने एवं प्राप्त करने के प्रति उपेक्षाभाव रखने लगे। संस्कारित जीवन के प्रति भी वे परंपरावादी बने रह गये । ( ii ) स्वयं के अज्ञान ने जैनेतरों में जैनधर्म और संस्कृति के विषय में अनेक धारणायें उत्पन्न हुई। यह स्थिति आज भी सहज ही ध्याब में आने लगती है। प्रचार-प्रसार युग औद्योगिक क्रान्ति के बाद विश्व के चारों कोनों में आर्थिक, साहित्यिक, राजनीतिक एवं यातायात की दिशाओं में बढ़ा विस्तार हआ है। बीसवीं सदी के आठवें दशक में अपने बुद्धिबल से साधन जुटाने वाला मानव स्वयं संसाधनमात्र बन गया है। उसे और उसके प्रत्येक विचार जिसमें धर्म और दर्शन भी समाहित है, को सामान्य सामग्री की भाँति प्रबंधन और विक्रय कला के विज्ञान से नियन्त्रित होना पड़ रहा है। जिस समुदाय ने यह सामयिकता जितने ही रूप ओर मात्रा में अपनाई, वही आज संख्या और महत्त्व की दृष्टि से विकसित होता दिख रहा है। वर्तमान युग प्रचार-प्रसार का युग ही है । पूर्ववर्ती युगों में आत्ममिता के आधार पर इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया । यद्यपि भध्य युग तक साहित्यिक एवं शारीरिक संचरण के साधन आज के समान सुलभ नहीं थे, फिर भी समय-समय पर पूर्वोक्त विधाओं का उपयोग कर अनेक प्रभाबक आचार्य, साध, संत, श्रावक श्रेष्ठियों ने इस धर्म की ऐतिहासिक प्रभावना की। इससे जनेतरों में जैनधर्म और संस्कृति की गहरो छाप पड़ी। ये प्रभावक कार्य आपातकालीन या आकस्मिक ही रहे हैं। लोक कल्याण एवं प्रभावना इनके लय रहे हैं। प्रभावना के कार्य स्थायी प्रवृत्ति के रूप में मान्य नहीं हुए । इन्हें अपवाद मार्ग मानकर कमी कमी प्रायश्चित भी करना पड़ता था। नये युग का जनों पर भी प्रभाव पड़ा है। अनेक नव-शिक्षित व्यक्तियों ने अनुभव किया कि जैन धर्म और संस्कृति की व्यापकता एवं वैज्ञानिकता के कारण इसे देश-विदेश में सार्वजनिक रूप से प्रसारित करना चाहिये । दूरदर्शी दृष्टि से इस कार्य के तीन रूप प्रकट हुए : (i) स्व-देश में जनेतरों में प्रसार ( i ) विदेशों में जैनेतरों द्वारा प्रचार (iii ) भारतेतर क्षेत्रों में जैन और जैनेतरों में प्रचार-प्रसार इस सदी के प्रारम्भ से ही इन तीनों दिशाओं में अनेक उत्साही बन्धुओं ने कार्य प्रारम्भ किया। हम यहाँ केवल (ii) व (iii) पर चर्चा करेंगे। उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ से ही कर्नल मैकेन्जी, डॉ. बुकेनन, प्रो० कोलबुक, वीबर, जेकोबी, पिशल, शूबिंग, जिमेर, आल्सडोर्फ, वाशम, ग्लेजनाप तथा अन्य विद्वानों ने पश्चिम में जैन बिद्याओं के महत्त्व को समझने में बड़ा श्रम किया है। उनके श्रम से ही हम स्वयं को अनेक रूपों में समझने में सफल हो सके हैं । इन पाश्चात्य विद्वानों ने भारत विद्या, जैन विद्या, प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं को अनेक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में समाहित कराया। इन्हीं के प्रयत्नों का फल है कि आज मारतेतर विश्व के लगभग शताधिक ज्ञान केन्द्रों पर जैनविद्यायें विशेष रूप से पढ़ाई जा रही हैं। विद्वत्-जगत में धर्म और संस्कृति के प्रचार का स्थायी महत्त्व होता है क्योंकि विद्वान 'दीप से दीप जले' के वर्धमान संस्कृति-प्रवाह का प्रतीक होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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