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________________ - ६२ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड (घ ) जीवन की स्थिरता (C) जीवन की स्थिरता की अभिव्यक्ति-उपासना और सेवा के रूपों में । इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है-'जीवन को स्थिरता' । व्यक्ति इसकी ही उपलब्धि करता है और इसे ही अभिव्यक्ति प्रदान करता है। जीवन की स्थिरता तब प्राप्त होती है जब मनुष्य की संवेगात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है । संवेगात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति तब होती है जब व्यक्ति के मन में श्रद्धा होती है। श्रद्धा किसी उस शक्ति के प्रति होती है जो अपने से परे है। जीवन की स्थिरता का मतलब है जीवन की व्यवस्था जिससे सुख-शान्ति प्राप्त होती है । संवेगात्मक आवश्यकताएँ व्यक्ति के स्वभाव से सम्बन्धित होती है। अपने से परे किसी शक्ति के प्रति श्रद्धा होनी चाहिए, इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि वह शक्ति कौन सी है ? वह परे शक्ति ईश्वर के रूप में अथवा अन्य किसी रूप में भी श्रदेय हो सकती है। इस प्रकार धर्म जीवन की स्थिरता को लक्ष्य बनाकर परे शक्ति के प्रति श्रद्धा के माध्यम से मानव के संवेगों की पूर्ति करता है। इससे यह प्रमाणित होता है कि धर्म मानवीय स्वभाव से सम्बद्ध है, तथा ईश्वरीय परिधि के भीतर अथवा बाहर रहने के लिए स्वतन्त्र है। कोई भी धर्मानुयायी इसके लिए बिलकुल स्वतन्त्र है कि वह ईश्वर को परे शक्ति के रूप में ग्रहण करे अथवा नहीं । मसीह साहब ने धर्म की एक परिभाषा प्रस्तुत की है जिसमें उन्होंने विलियम केनिक ( Kennick) एरिख .. फ्रॉम ( Erich Fromm ) एवं विलियम ब्लैकस्टोन (Bloekstone ) के विचारों को समाहित करने का प्रयास किया है: "धार्मिक विश्वास यह है जो किसी निष्ठा ( Devotion) के विषय के प्रति सम्पूर्ण आत्मबन्धन ( Commitment ) के आधार पर जीवन की समस्याओं की ओर सर्वव्यापक रीति से व्यक्ति को अभिमुख (Oriented ) करें।"२ यह परिभाषा समकालीन चिन्तकों की चिन्तन पद्धतियों के आधार पर बनाई गई है। इसमें जिन पक्षों पर बल दिया गया है, वे इस प्रकार हैं : ( क ) निष्ठा, ( ख ) निष्ठा का विषय, ( ग ) आत्मबन्धन, (घ) जीवन की समस्याएँ, (ङ) व्यापक रीति । धार्मिक व्यक्ति में किसी के प्रति निष्ठा होनी चाहिए। उसमें सम्पूर्ण आत्म बन्धन होना चाहिए यानी निष्ठा आत्म बन्धन से परिपष्ट होनी चाहिए और उसके आधार पर जीवन की समस्याओं का समाधान होना चाहिए। किन्त समस्या समाधान करने की पद्धति को संकुचित नहीं बल्कि सर्वव्यापी होना चाहिए। इस परिभाषा में जीवन की समस्याओं के समाधान को प्रमुखता दी गई है। किन्तु इसमें भी यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि निष्ठा किसके प्रति होनी चाहिए। भारतीय परम्परा में यह माना गया है कि 'धर्म' शब्द 'धृ' धातू से बना है, जिसका अर्थ होता है-'धारण करना'। अतः धर्म को इस रूप में परिभाषित किया जाता है-“धारयति इति धर्मः" अर्थात् जो हमें धारण करता है वही हमारा धर्म होता है। धारण करने से मतलब है-'जीवन को धारण करना'। जिस पर हमारा जीवन आधारित होता है वही हमारा धर्म होता है। जिससे हमारा जीवन व्यवस्थित होता है, वही धर्म है। 2. Religious beliefs provide an all pervasive frame of reference or a focal attitude of orientation to life and induce a total commitment to an object of devotion. -सामान्य धर्म दर्शन-पृ० २३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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