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________________ ५८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड साथ ही "समता" को जोड़ा था । आर्थिक लोकतन्त्र के बिना राजनैतिक लोकतन्त्र मात्र औपचारिक बन गया और यही कारण है कि कैरो से लेकर जकार्त्ता तक विकासशील देशों में लोकतन्त्र आकर भी अदृश्य हो गया। दो तिहाई जनसंख्या को गरीबी रेखा के नीचे रखकर तथा प्रायः उतने ही लोगों को निरक्षर रखकर भारतोय लोकतन्त्र भी कितने दिनों तक जी सकेगा - कहा नहीं जा सकता । आज जिस प्रकार संसद् एवं विधायिका का अंकुश क्षीण होता जा रहा है, जिस प्रकार न्यायपालिका भी कार्यपालिका के समक्ष हतप्रभ होकर समपर्ण की मुद्रा में आ गयी है, जिस प्रकार संचार के साधनों पर सत्ता एवं पूँजीपतियों का सम्मिलित आधिपत्य है, जिस प्रकार लोकतन्त्र के स्तम्भ एक पर एक टूट रहे हैं, तथा कार्यपालिका के भी अधिकार सिमटकर वर्गतन्त्र एवं एकतन्त्र को जा रहे हैं, उस संदर्भ में हमारी स्वतन्त्रता भी मानो गिरवी रक्खी जा चुकी है । लेकिन लोकतन्त्र का विकल्प कभी भी अधिनायक तन्त्र नहीं हो सकता चाहे वह रूस-चीन में सर्वहारा या साम्यवाद के नाम पर हो या पाकिस्तान ईरान में इस्लाम के नाम पर । विकृत लोकतन्त्र का विकल्प, परिष्कृत लोकतन्त्र ही होगा । कारण के लिये पुनः मूल में जाना होगा कि लोकतन्त्र के अन्तर्निहित स्वतन्त्रता का जीवन-मूल्य मानव-मुक्ति के साथ जुड़ा हुआ है। मुक्त मन और मुक्त मानव से ही सृजन संभव है, वही व्यवस्था में परिवत्र्तन और परिष्कार भी कर सकता है। पशु की तरह बँधा मानव विश्व को न कोई अवदान दे सकता है, न वह सुख-शान्ति से जीवन ही व्यतीत कर सकता है। आज अधिनायकवादी व्यवस्था तन्त्र में मीं मानवीय स्वतन्त्रता की भूख और प्यास प्रकट हो रही है । युगोस्लाविया ने रूसी प्रभाव से अपनी राष्ट्रीय अस्मिता एवं स्वायत्तता को अक्षुण्ण रखने के लिए जो किया है, वह स्पष्ट है । पुन: उसी युगोस्लाविया के अन्दर वहाँ के संगठन के शीर्ष में रहे, श्री मिलवन जिलास ने मानवीय एवं व्यक्तिगत स्वतन्त्रता लिए न जाने कितनी यन्त्रणाएँ सही । इटली आदि कई यूरोपीय देशों में यूरो- कम्यूनिज्म के नाम से साम्यवाद के जीवन मूल्य के साथ साथ करके देखा जा रहा है एवं जहाँ मार्क्स- एंजेल्स को स्वीकार किया जाता है, वहाँ लेनिनवाद का परित्याग करके नृशंस साम्यवाद के बदले अमानवीय साम्यवाद की कल्पना की जा रही है। स्वयं रूस में पेस्टर नाइक, सोसजिन्सटीन और आज सोखोरोव दम्पति सौम्य ढंग से ही, सही स्वतन्त्रता के जीवन-मूल्य के लिये जूझ रहे हैं। पोलैंड में ९० लाख से अधिक मजदूर वेलेशा के नेतृत्व में स्वतन्त्र श्रमिक आन्दोलन के लिये संघर्षशील हैं। चीन में भी माओ के बाद उदारवाद का एक उतार आया ही था । स्टालिन के बाद रूस में भी क्रुश्चेव के समय साम्यवादी शासन में उदारता आयी थी । असल में स्वतन्त्रता मानव का शाश्वत जीवन-मूल्य है, उसके बिना उसे संतोष एवं शान्ति नहीं मिलती । यही है कि मुक्ति की चाह । असल में साम्यवाद ने मानव को एक वस्तु मानकर उसके साथ यात्रिक दृष्टि से व्यवहार करना चाहा । उसने उसके भौतिक पक्ष को जितनी गहराई से समझा, उसके बौद्धिक एवं आध्यात्मिक पक्ष को नहीं । इसीलिये साम्यवाद मानव मुक्ति की घोषणा तो करता लेकिन वह उसे मुक्ति दे नहीं पाता । मानवीय स्वतन्त्रता के मूल्य को 'कुछ यह ठीक है कि मानवीय मूल्य या उसकी स्वतन्त्रता शून्य से न उद्भूत होती है और न शून्य में अवस्थित रहती है । इसलिये मानव मूल्यों के उन्नयन के लिये मानव के आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक संदर्भों को भी समुन्नत करना होगा । इसी को बापू "स्वराज” कहते थे । यही उनकी " जड़मूल से क्रान्ति", डा० लोहिया की "सप्तक्रान्ति” और जे० पी० की "सम्पूर्ण क्रान्ति" है । मानव मूल्यों का अभ्युत्थान यदि नाम और जप, पूजा और प्रार्थना से ही हो जाता, तो गाँधी हिमालय की गुफाओं में जाकर साधना करते । लेकिन वे तो आजीवन गलत समाज व्यवस्था, गलत राजनीति, गलत शिक्षा आदि से संघर्ष करते रहे । हृदय परिवर्तन और विचार परिवर्तन के साथ उन्होंने व्यवस्था परिवर्तनको अत्यधिक महत्व दिया। उन्होंने "ईश्वर अल्ला तेरे नाम" की प्रार्थना ही नहीं की, बल्कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए नोआखाली और बिहार में घूमते हुए उसके लिए अपनी शहादत दी। उन्होंने "अछूतों को केवल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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