SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २] मानवीय मूल्यों के ह्रास का यक्ष-प्रश्न : मानव ५७ अधिष्ठाता-देवता मानव ही होता है। मानव-निरपेक्ष क्रान्ति, नृशंसता का शिकार बनकर मानवीय मूल्यों का निर्दलन करने लग जाती है। इसी से प्रतिहिंसा एवं प्रतिक्रियाओं का अन्तहीन क्रम बंध जाता है और मानवता कराहती रहती है । मानवीय जीवन मूल्य और मानव के मूल्य के साथ अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । जो मानव की स्वायत्तता और प्रतिष्ठा का ख्याल नहीं करेंगे, वे मानवीय मूल्य के अधः पतन पर चाहे जितनी भी चिन्ता करेंगे, व्यर्थ है। इसलिये "मानव" ही मानवीय जीवन मूल्य का यक्ष-प्रश्न है। मानव की सबसे बड़ी अभीप्सा है-मुक्ति। वह अनेक प्रकार के बन्धनों में पड़ा हुआ है, इसलिये मुक्ति उसकी बड़ी चाह है। अभाव, अज्ञान और अन्याय के बन्धनों में पड़ा मानव हमेशा मुक्ति के लिये छटपटाता रहता है । अभाव उसकी प्रतिभाओं को कुंठित करता है। अज्ञान उसे अन्धविश्वासों एवं रूढ़ियों का गुलाम बना देता है। अन्याय उसे भयग्रस्त करके उसकी सृजन शक्ति को दबा देता है। लेकिन यह तो भौतिक मुक्ति की बात हुई। उसकी मानसिक मक्ति भी कम महत्व की नहीं। राग और द्वेष, चिन्ता और अभिनिवेश, क्रोध एवं लोभ आदि से वह कितना अधिक परेशान रहता है, इसका तो हम हृदय द्रावक दृश्य बढ़ती हई मानसिक व्याधियों में देख सकते हैं। मनुष्य की भौतिक सुख-समृद्धि भले ही बढ़ी हो, लेकिन उसका मानसिक सुख एवं उसकी शान्ति भी बढ़ी है, यह नहीं कहा जा सकता है। शायक उपनिषद् की बात ही सही है-"न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो।" इसीलिये तो मैत्रेयी ने याज्ञवल्क्य से विनम्रता पूर्वक निवेदन किया था-"येनाहं नामृतास्यां, किमहं तेन कुर्याम् ?" कांचन, कामिनी एवं कीति- तीनों से परिपूर्ण गौतम ने किसी आर्थिक या भौतिक कारण से गृह-त्याह नहीं किया था। इसका अर्थ है कि मानव के लिये कुछ समय तक तो भौतिक अभाव, शाब्दिक एवं शास्त्रीय अज्ञान एवं सामाजिक, राजनैतिक अन्याय के बन्धन रहते हैं, और फिर मानसिक असन्तोष, असन्तुलन और अशान्ति से भी वह छुटकारा चाहता है। अतः मुक्ति ही प्रकारान्तर से मानव की सबसे बड़ी अभीप्सा है। कभी वह भाग्य द्वारा छला जाता है, कमी प्रकृति उसे धोखा दे डालती है, फिर उसके माथे के ऊपर अनिवार्य मृत्यु की लटकती तलवार भी उसे न सुख से जीने देती है, न शान्ति से मरने ही देती है। यही नहीं, भारतीय चिन्तन परम्परा में इसी जीवन में उसके सम्पूर्ण दु.ख निःशेष नहीं हो जाते । बार-बार उसे कर्मफल के अनुसार जन्म लेना पढ़ता है और मरना पड़ता हैं- 'पुनरपि जननं, पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे करणं ।" ऐसी स्थिति में यदि वह इस जन्म-मरण के बन्धन से ही छुटकारा चाहता है, तो न यह अस्वाभाविक है, न अव्यावहारिक । मुक्ति की चाह कोई स्वप्न विहार नहीं, कोई भाषा-विश्लेषण नहीं, बल्कि मानव प्रकृति की अनिवार्य मांग है। तत्व मीमांसा की भाषा में जिसे हम मुक्ति कहते हैं, समाजशास्त्र के संदर्भ में उसे ही हम मानव की स्वायत्ता या स्वतन्त्रता कह सकते हैं। मानव तो क्या, पशु-पक्षी भी स्वतन्त्रता ही चाहते हैं। मुक्त आकाश में विचरण करता हुआ पक्षी सोने के पिंजड़ों में कैद होने के लिये कमी नहीं तरसता है। खूटे में बँधा पशु हमेशा मुक्त होकर स्वच्छन्द विचरण करना चाहेगा । इसीलिये मानव का सर्वोत्कृष्ट जीवन-मूल्य है-स्वतन्त्रता। संभवतः इसीलिये फ्रांस की क्रान्ति का मन्त्र "स्वतन्त्रता' के साथ समता एवं भ्रातृत्व है। भारत में भी स्वतन्त्रता के इसी जीवन-मूल्य को तिलक और गांधी ने "स्वराज्य" की संज्ञा दी जिसका महत्व वैदिक-वाङ्मय में भी वर्णित है। स्वतन्त्रता की भावना मानव की स्वायत्ता को अभिव्यक्त करती है। इसलिये इसके साथ किसी दूसरे जीवन मूल्य के साथ लेन-देन का बनियाशाही हिसाब नहीं किया जा सकता। यह स्वतन्त्रता ही जनतान्त्रिक जीवन-मूल्य का आधार है। लेकिन पश्चिम की पूंजीवादी वाणिज्य वृत्ति की सभ्यता ने इस स्वतन्त्रता के साथ भी कुत्सित और गहित सौदेबाजी करके जनतन्त्र के सच्चे स्वरूप को विकृत कर दिया। निहित स्वार्थ ने आर्थिक समता की बात भुलाकर लोकतन्त्र को इतना नग्न कर दिया कि करोड़ों भूखी जनता के लिये यह निरर्थक एवं अप्रासांगिक बन गया है। यही कारण था कि रूसों ने "स्वतन्त्रता" के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy