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________________ विराट महामानव सि० धन्यकुमार जैन कटनी ( म०प्र०) सरल, सौम्य, संयम और सादगीपूर्ण जीवन के लक्षण पंडित जी में प्रारंभ से ही दृष्टिगत हए है। इनके जीवन में उसने पिता के धार्मिक संस्कार पग-पग पर प्रतिबिंबित हुए हैं। यही कारण है कि वे विद्वत्ता, धर्म व समाज के क्षेत्र में अपनी प्रतिष्ठा अजित कर सके। मैं उनकी जीवन गाथा की पुनरावृक्ति नहीं करना चाहता, फिर भी उनकी कुछ महत्वपूर्ण प्रकृति को निरूपित करनेवाली घटनायें देना आवश्यक समझता हूँ। (क) वरैयाजी के तीन वर शहडोल के कोयला-केन्द्र में जन्मे पंडित जी की श्वेतिमा में जैन विद्वत् एवं साधुजगत को धवलित करने की क्षमता है। उनकी इस श्वेतिमा का आभास हमारे भाई श्री रतनचंद्र को पनागर की प्रतिष्ठा में ही हो गया था, जब वे उन्हें कटनी ले आये, शिक्षित किया और जैन शिक्षा-संस्था में अपने गुरु श्री वरैया जी के निम्न सिद्धान्तों के प्रतिपालन के अनुरूप नियोजित किया : (१) किसी के यहां नौकरी नहीं करना और न आजीविका के लिये किसी दयनीय वृत्ति को अपनाना । धर्म-प्रचार, प्रभावना आदि के निमित्त सभाओं में सम्मिलित होने के लिये किसी भी प्रकार का पारिश्रमिक या विदाई भेंट स्वरूप ग्रहण नहीं करना। माल्यार्पण के अतिरिक्त कोई वस्तु न लेना। (३) उदरपोषणके लिये किसी से भी धन या अन्य वस्तु की याचना नहीं करना । स्वयं देने पर भी कुछ भी स्वीकार नहीं करना। ये सिद्धान्त ही उनकी जीवन की आधारशिला बने हुए हैं । ये उन्हें वरदान-से सिद्ध हुए है। (ख) निःस्पृहता की वृत्ति के कुछ उदाहरण सिवनी-निवासी सेठ गोपालसाह पूरनसाह काशी में पंडित जी की कुशाग्रता से बड़े प्रभावित हए। वे उन्हें सिवनी आने का निमंत्रण दे गये । जब वे सिवनी गये, उनके आचार-विचार व ज्ञान पर मुग्ध होकर उन्होंने पंडित जी को गोद लेने की सोची। उनके पिताजी ने तो उन्हें साफ लिख दिया कि वे अपने पुत्र को सिं० कन्हैयालाल कटनीवालों को पहले ही सोप चुके हैं । सेठ जी ने कटनी पत्र दिया । जब यह पत्र उन्हें बताया गया, तो उन्होंने निम्न उत्तर दिया "दादा जी, वर्तमान में मैं धर्म-शिक्षा एव सेवाकार्य से पूर्ण सुखी एवं संतुष्ट हूँ। आपका पूर्ण आर्थिक सहयोग है । मुझे लक्ष्मी-पुत्र बनने की आकांक्षा नहीं है।" ___इसी प्रकार, स० सिं० कन्हैयालाल जी ने भी इन्हें अपनी संपत्ति के उत्तराधिकारी बनाने का आग्रह किया था। विनय और मर्यादा का ध्यान रखते हुए उन्होंने सिंघई जी से निम्न बात कही, “जो कुछ मैं आज हूँ, वह सब आपके आशीर्वाद का सुफल है। मुझे अब आप धन-वैभव के बंधन में न डालिये। मैं जीवनभर पूत्रवत ही परिवार का मार्गदर्शन एवं संरक्षण करता रहूँगा।" एक वार साहू शांतिप्रसाद जी ने आर्थिक सहायता देकर इन्हें एक प्रेस खोलने का आग्रह किया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012026
Book TitleJaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherJaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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