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________________ मन में यदि अपवित्रता है तो धर्म की तेजस्विता प्रकट नहीं हो सकती। गुरुणीजी महाराज के हृदय में पवित्रता है और वही पवित्रता वाणी के रूप में अभिव्यक्त होती है। आप देखेंगी, वे अपने विषय का प्रतिपादन करने हेतु आगमों की सूक्तियों का प्रयोग करते हैं। जहाँ वे नीतिशास्त्र की उक्तियों का भी प्रयोग करती हैं। तो महापुरुषों की सूक्तियाँ भी प्रस्तुत करती हैं। रूपक, आगम कथाएँ व लोक कथाएँ, भी सुनाती हैं। जिससे श्रोताओं को गहन और गम्भीर विषय भी सहज रूप से समझ में आ जाता है। गुरुणी जी महाराज सदा समन्वयात्मक भाषा का ही प्रयोग करती हैं । वे समन्वय की दृष्टि से सोचती हैं और समन्वय की दृष्टि से ही वे लिखती भी हैं। समन्वय मूलक नीति के कारण ही वे जनजन की आदरपात्र बनी हैं। वे जो भी बात कहती हैं चन्दन के शर्बत की तरह गले के नीचे उतर जाती हैं। उनकी वाणी में ओज है, तेज है, हृदय की पवित्रता है और साधना का उत्कर्ष है । आपके प्रवचनों से जहाँ वृद्ध व्यक्तियों को आगम के रहस्य जानने को मिलते हैं। वहाँ युवकों को चिन्तन और अनुभव का अमृत मिलता है। आपके विराट् व्यक्तित्व, चिन्तन को गहराई और आत्मीयता की प्रवाहित सरिता को निहारकर मै मन ही मन श्रद्धानत हूँ। आपके स्नेह पूर्ण सद्व्यवहार से मेरे अन्तर्मानस की कई उलझी हुई ग्रन्थियाँ सुलझ गई। आपके सम्बन्ध में मैं क्या लिखू, यह एक प्रश्न चिन्ह मेरे सामने है। मै कवि के शब्दों में इतना ही निवेदन कर सकती हूँ कि "तुम एक गुल हो, तुम्हारे जलवे हजार हैं। तुम एक साज हो, तुम्हारे नगमें हजार हैं ।। 7 ఇంతించిందించిందించడంతందంగాణ व्यक्तित्व के चित्र को शब्दों के फ्रेम में मढने का विराट् मनोवृत्ति की धनी प्रस्तुत उपक्रम है। प्रसन्न मन, सहज ऋजुता, जन-जन के प्रति -महासती चन्द्रावतीजी समभाव आत्मीयता की तीव्र अनुभूति गहन चिन्तन परोपकार परायण व्यक्तित्व, वात्सल्य का उमड़ता అందించడమంటలందించిందించి - सागर जो एक बार भी आप श्री निकट सम्पर्क में शब्द परिमित है और व्यक्तित्व की रेखाएँ आता है उस पर आपके तेजस्वी व्यक्तित्व की छाप अपरिमित हैं । परिमित शब्दों में अपरिमित सदा-सदा के लिए अंकित हो जाती है। व्यक्तित्व को बांधना गागर में सागर भरने के समान चिन्तन के क्षणों में बैठी हुई मैं सोच रही हूँ कि कठिन ही नहीं, अति कठिन है । पर विवशता है, मैं क्या लिखू सद्गुरुणीजी के अगणित संस्मरण मेरे अभिव्यक्ति पाने के लिए ललक रही है। स्मति पटल पर रह-रहकर आ रहे हैं। किस संस्म इसीलिए यह प्रयास है सद्गुरुणी जी के व्यक्तित्व रण को लिखू और किसे न लिखू यह समझ में नहीं का लेखा-जोखा जितना अनुभूति परक है उतना आ रहा है। अभिव्यक्ति परक नहीं। क्योंकि अनुभूति चेतन है, सन् १६४६ फरवरी मास में उदयपुर की रमतो अभिव्यक्ति के शब्द जड़ है तथापि संसार शब्दों णीय भूमि में सद्गुरुणी जी महाराज विराज रही के सहारे की अपेक्षा करता है । इसलिए उस विराट थी। मैं अपनी पूज्यनीया माता लहरीबाई के साथ विराट मनोवृत्ति की धनी | ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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