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________________ दर्शनार्थ पहुँची। वन्दनकर मैंने निवेदन किया कि करती कि सभी लोग मुझे बुद्धिमान समझते, तो मैं कानोड़ निवासी पन्नालालजी मेहता की पुत्री दूसरे क्षण ऐसी बेतुकी बात कहती कि सभी दंग रह हूँ। गुरुणीजी महाराज ने मुझे बताया कि ये सद्- जाते कभी नाचती तो कभी गाती यह थी मेरे पागलगुरुणीजी सोहनकुंवरजी म. हैं । और ये तपोमूर्ति पन की स्थिति ऐसी विषम स्थिति में अन्य लोग सेवा मदन कुँवर जी म० हैं । और ये माताजी श्री प्रभा- करने से कतराते किन्तु सद्गुरुणी जी ने मेरी जो वती जी महाराज हैं । प्रथम दर्शन में ही मैं सद्- सेवा की उसे मैं किन शब्दों में अंकित करूं। उनकी गुरुणी जी से प्रभावित हुई। अपने स्थान पर पहुँची सेवा भावना बहुत ही अद्भुत और अनूठी है । जबपर मेरे आखों के सामने वही छवि रह-रहकर आने जब भी मैं बीमार हुई तब-तब उन्होंने जो सेवा का लगी। मैं प्रतिदिन दर्शनार्थ जाने लगी। आदर्श उपस्थित किया। वह सभी के लिए अनुकरएक दिन मैंने अपने हृदय की बात मां से कही। णीय है। मां ने कहा-दीक्षा लेना कोई हंसी खेल नहीं है आपमें अध्ययन करवाने की कला भी अभत तू अभी बहुत छोटी है मैं पहले देखूगी कि तेरा है। जब आप अध्ययन करवाती हैं तब हमें सहज वैराग्य कितना पक्का है । उसके बाद ही अगली ही आपकी प्रकृष्ट प्रतिभा के संदर्शन होते हैं । जिस बात....। माताजी को जब यह पूर्ण विश्वास हो गया विषय को आप पढ़ाती हैं उसे सरल और सुबोध कि मेरी वैराग्य भावना अन्तर्ह दय से उबृद्ध है तो शैली में प्रस्तुत करती हैं जिससे विद्यार्थी को अध्यवे स्वयं भी दीक्षा के लिए कटिबद्ध हो गई। सन् यन भार रूप न होकर सहज होता है । वह अध्य१६४७ में मैंने कपासन में दीक्षा ग्रहण की, और यन करते हुए बोर नहीं होता । वह उन गण गंभीर सद्गुरुणी जी पुष्पवती जी का शिष्यत्त्व स्वीकार रहस्यों को सहज ही हृदयगंम कर लेता है। किया । और माताजी ने महासती श्री प्रभावतीजी सद्गुरुणी जी की एक बहुत बड़ी विशेषता है,बे का शिष्यत्व ग्रहण किया। मैंने सद्गुरुणी जी के बहुत ही सरल हैं, उनके जीवन में पोज नहीं, किन्तु चरणों में बैठकर संस्कृत-प्राकृत हिन्दी आदि सत्य की खोज है । बनावटी और दिखावटीपन उन्हें भाषाओं का अध्ययन किया। आगम साहित्य का पसन्द नहीं है। उनकी प्रकृति बहुत ही मधुर है, जो परिशीलन किया। उनके चरणों में रहता है उसे अपार आनन्द की मैंने यह अनुभव किया कि सद्गुरुणी महाराज अनुभूति होती है। का जीवन सद्गुणों का आगार है । वे ज्ञानी हैं पर मैं इस पावन प्रसंग पर यह मंगल कामना उनमें ज्ञान का अहंकार नहीं है। वे त्यागी हैं, पर करती हूँ कि सद्गुरुणी जी सदा स्वस्थ रहकर धर्म उनमें त्याग का घमंड नहीं है। वे बहुत ही सहज की प्रबल प्रभावना करती रहें और मैं भी उनके हैं, सरल हैं । उनका अन्तर्हृदय बिल्कुल विशुद्ध है। श्री चरणों में रहकर अपना जीवन धन्य बनाती उसमें स्नेह का सागर सदा ठाटे मारता रहता है। रहूँ। उसमें अपना और पराये का कोई भेद नहीं है। जो पुष्प सूक्ति कलियाँपराये हैं वे भी उनके अपने हैं। जो अपने हैं वे तो 0 असत्य का पर्दा जब मनुष्य की बुद्धि पर अपने हैं ही। एक बार में अस्वस्थ हो गई और पडता है तो उसके अन्तर्नेत्रों के आगे अन्धकार आ ऐसी अस्वस्थ हो गई कि सभी मेरी अस्वस्थता देख- जाता है । कर घबरा गये, मेरे मस्तिष्क का संतुलन बिगड़ असत्य का पाप समस्त पापों से बढ़कर गया। जिससे मैं एक क्षण रोती तो दूसरे क्षण भयंकर है । खिल-खिलाकर हंस पड़ती। एक क्षण मैं ऐसी बात ३४ प्रथम खण्ड : शुभकामना : अभिनन्दन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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