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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ अन्यों से करवाना भी नहीं और न किसी द्वारा हिंसा करते हुए का अनुमोदन ही करना । पर हिंसाअहिंसा की सुविधावादी लोगों ने अपने ढंग से अपने मन भाती परिभायें बनाली हैं। इसके लिए उनका तर्क है कि जमाने के अनुसार यह सब करना पड़ता है, इसलिए धर्म की कसौटी भी बदलती नजर आ रही है। यह सब हुआ इसीलिए धर्म शब्द के कई रूप बदलाव आये। देखिये धर्म शब्द किन-किन अच्छेबुरे शब्दों की खोल के साथ जा लगा-धर्म धक्के, धर्म ध्वजा, धर्म चक्र, धर्म ध्यान, धर्म संघ, धर्मान्ध, धर्म कर्म आदि-आदि। पर सर्वश्रेष्ठ धर्म दूसरों की भलाई का कहा गया है। यही सर्वमान्य और शाश्वत धर्म है। इसमें कोई जात-पांत आड़े नहीं आती। कोई वर्ग सम्प्रदाय का झमेला भी नहीं । सचमुच में यही सरस धर्म है। इसमें व्यक्ति जहाँ अन्य को सरसता देता है वहाँ स्वयं भी सरस बनता.'है । प्रकृति तो परमार्थ के लिए ही है। पहाड़, वृक्ष, नदी-नाले सबके सब परहित के लिए हैं । वृक्ष छाया देते हैं, फल फूल देते हैं, कइयों के आजीविका के स्रोत हैं, कइयों का इन्हीं से जीवन बसर होता है । बदले में क्या लेते हैं ये ? कई वृक्ष से बड़े पवित्र माने गये हैं जिनके बिना हमारा काम नहीं चलता। देवी-देवताओं के निवास स्थान होते हैं वृक्ष । बुद्ध को बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ, वे ईश्वर बन गये। . यही स्थिति नदियों की है । वे पानी देती हैं और भी बहुत कुछ देती हैं । बड़े-बड़े बांध बन गये हैं तो उनसे बिजली पैदा होती है। बिजली का उपयोग बताने की आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार पहाड़ों की, घाटियों की स्थिति है, सारी प्रकृति परोपकारी है, परमार्थी है, जो प्रकृति का परम धर्म है वही पुरुष का धर्म है। ___ जगत में जो-जो लोग परहित धर्म में लगे हुए हैं वे बड़े सुखी, शांत मन मिजाज वाले और मंतोषी हैं। कोई विकलांगों की सेवा के लिए समर्पित है तो कोई गौ सेवा में अपना जीवन खपा रहा है। कोई प्रतिदिन चींटियों के बिलों के पास जाकर उन्हें खाना दे रहा है तो कोई बीमारों की देखभाल के लिए दृढ़प्रतिज्ञ है। ऐसे जितने भी लोग हैं उन्होंने अपने स्वहित को कभी प्राथमिकता नहीं दी इसीलिए उनका कुटुम्ब बहुत विस्तार लिए है । हमारे यहाँ तो यह उदारता रही है कि हमने सारी वसुधा को अपना कुटुम्ब-परिवार मानते हुए- वसुधैव कुटुम्बकम् का जयघोष दिया है। जैनियों का तो यह मत ही उनके जीवन धर्म का महत्त्वपूर्ण अंग और आचरण बन गया है। वे प्रतिवर्ष भाद्र माह में, पयूषण पर्व मनाते हैं त्याग तपस्या का और आखरी दिन क्षमायाचना के रूप में क्षमापर्व मनाते हुए समस्त सृष्टि के चौरासी लाख जीव योनि से क्षमायाचना करते हैं-जान-अनजान में, प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से किसी से भी मन से वचन से किंवा काया से कोई अपराध हआ हो उसके लिए वे क्षमा की याचना करते हैं और आत्म-शुद्धि करते हैं । आत्म-शुद्धि का यह धर्म कितना उच्च परहित सरस धर्म हैं । वे कहते हैं खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमन्तु मे । मित्ति मे सव्व भूएसु, वैर मज्जं न केणई। मैं सब जीवों से क्षमा चाहता हूँ, सब जीव मुझे क्षमा करें, मेरी सब जीवों से मैत्री है, किसी से मेरा वैरभाव नहीं है, यही सच्चा परमार्थ धर्म है। १६० | पंचम खण्ड : सांस्कृतिक सम्पदा ...UNILLAns. ...sani Paa.... ...... Monall .
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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