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________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ imHEHRADA धर्म और जीवन मूल्य Priyana - डा. महेन्द्र भानावत धर्म को लेकर कई परिभाषायें हो गई हैं । यह शब्द इतना सुविधावादी भी बना दिया गया है कि इसमें सभी सम्भावनाओं का समावेश हो जाता है । वैसे हमारा देश ही धर्मप्रधान है। जितने धार्मिक सम्प्रदाय यहाँ हैं उतने शायद ही कहीं देखने को मिलें। सभी सम्प्रदायों के धर्म के न्यारे-न्यारे रूप मिलेंगे। साधु सन्तों, मन्दिर-मठों तथा विभिन्न पंथ-पंथा पलियों एवं समाजों में यह धर्म खूब पनपा, फैला और पसरा है। गीता में श्रीकृष्ण जी कह गये-जब-जब धर्म की हानि होती है तब-तब मैं जन्म धारण करता हूं। कोई तीन हजार बरस होने को आये, कृष्ण महाराज ने जन्म धारण नहीं किया। धर्म की हानि हो जब न! और मेरे पड़ोसी कई बरसों से कह-कहकर मेरा कान पका रहे हैं कि इस देश से जैसे धर्म ही गायब हो गया। जहाँ जाता हूँ वहीं धर्म की जुदा-जुदा बातें सुनने को मिलती हैं । जनधर्म तो वही प्रबल है जिसमें अधिकाधिक जीवन-मूल्य हों। एक सज्जन ने तो मुझे आताल-पाताल का नक्शा ही खींच दिया और कहा-धर्म की जड पाताल में । मैंने उनसे कहा कि जड़ महत्त्वपूर्ण है या ऊपरी डाल पत्ते ? पाताल की जड़ देखने से क्या होगा? उसे आपने जीवन से सींचो तब काम चलेगा। ब्याह-शादी में विदाई जब लडकी को दी जाती औरतें लड़की को सीख देती हुई गाती हैं-धर्म तुम्हारा ए नार, पति की सेवा करना । इस गीत में पति को नहलाने, खिलाने-पिलाने तथा पोढ़ाने आदि का बड़ा सुन्दर चित्रण है। आज तो यह सब फिफ्टी-फिफ्टी हो गया है । जब से देश आजाद हुआ है, पत्नियाँ भी उसी तरह आजाद हो गई हैं, वे भी अब उसी तरह से नहाना-धोना, खाना-पीना, सोना-बिछौना मांगती हैं। यह भी एक धर्म है। सर्व धर्म सम्मेलन होने लग गये हैं अब तो। राजा हरिश्चन्द्र सत्य धर्म दे गये ! सत्य के खातिर वे बिक गये और नारियाँ सत के कारण सती बन बैठीं। अकेले चित्तौड़ में ऐसे सत्रह जौहर हो गये। सती औरतों को अपने आप सत चढ़ता। वे अपने सत के प्रताप से, मत्र-बल से आग उपाती और सती हो जातीं। ये महासतियाँ कहलातीं । वे सतियाँ तो कई हुई जो चिता को चढ़ गईं। तब यही उनका धर्म था। महावीर भगवान ने अहिंसा धर्म दिया और कहा -अहिंसा परमोधर्मः । अहिंसा की बड़ी सूक्ष्म परिभाषा दी। ऐसी परिभाषा अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगी, हिंसा न मन से, न वचन से और न काया से स्वयं करना ही, अपितु धर्म और जीवन मूल्य : डॉ० महेन्द्र भानावत | १८६ a monal www.ja
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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