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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ न्यायदर्शन के अनुसार जीवात्मा ज्ञान का अधिकरण है । फिर भी वह स्वभाव से ज्ञानशून्य है । अतएव जड़ है । आत्मा में स्वभावतः चैतन्य का अभाव है । मन के संयोग से उसमें ज्ञान उत्पन्न होता है । अर्थात्, 'ज्ञान' आत्मा का 'स्वाभाविक' धर्म न होकर 'आगन्तुक' धर्म ठहरता है । इसी बात को ध्यान में रखकर महाकवि श्रीहर्ष ने नैयायिकों का परिहास करते हुए कहा 30 - मुक्तये यः शिलात्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम् । आत्मा के गुण - न्यायदशन के अनुसार ज्ञान, सुख, दुःख आदि आत्मा के गुण हैं 31 । उसके मन, वाणी और शरीर के शुभ-अशुभ परिणामों से उत्पन्न होने वाले शुभ-अशुभ संस्कार आत्मा में अधिष्ठित रहते हैं । ये संस्कार, मृत्यु के बाद भी, जीवात्मा के साथ, एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करते हैं । इन्हीं के प्रभाव से आत्मा भोगशील होता है । यहाँ यह प्रश्न किया जाता है कि, चूंकि आत्मा विभु / सर्वव्यापी है । फिर, वह जहाँ कहीं भी कैसे आ / जा सकता ? वह एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश कैसे कर सकता है ? नैयायिक कहते हैं, इस तरह की शङ्का उचित नहीं है । क्योंकि आत्मा, विभु / व्यापक है । इससे उसके सभी संस्कार, सव जगह, हमेशा मौजूद रहते हैं। हालांकि नैयायिक, संस्कारों को 'मन' में नहीं मानते हैं, किन्तु, स्थूल शरीर में मन का संयोग होने पर, उसमें जीवात्मा के संस्कार जब उबुद्ध होते हैं, तभी वह भोगशील बन पाता है । यद्यपि, एक शरीर को छोड़कर, दूसरे शरीर में मन ही प्रवेश करता है, तथापि मोटी बुद्धि से, कहा यही जाता है - 'जीवात्मा के साथ उसके संस्कार भी जाते हैं ।' यह कथन, जीवात्मा का मन से सम्बन्ध होने के कारण, किया जाता है । मोक्ष – इक्कीस प्रकार के दुःखों और उनके कारण का विनाश हो जाने पर आत्मा मुक्त होता है । यानी, इक्कीस प्रकार के दुःखों से हमेशा-हमेशा के लिये छूट जाना 'मुक्ति' है । इसका दूसरा नाम 'अपवर्ग' भी है । इक्कीस प्रकार के दुःख ये हैं- 'मन के साथ छः इन्द्रियाँ, उनके रूप-रस आदि छः विषय, इन छः ही प्रकार के इन्द्रिय-विषयों के छः प्रकार के ज्ञान, सुख और दुःख । इन्हीं से दुःख उत्पन्न होता है । अत: इनकी आत्यन्तिक निवृत्ति को नैयायिक 'मोक्ष' कहते हैं । मोक्ष प्राप्ति की प्रक्रिया —— शास्त्रों के समालोचनजन्य ज्ञान से पदार्थों का जो ज्ञान होता है, उससे, पदार्थों में तमाम दोष दिखलाई देने लगते हैं । इसी से, जीवात्मा को संसार के प्रति विरक्ति हो जाती है । वह मोक्ष की कामना करने लगता है । अब, वह गुरु के उपदेश से अष्टांग योग का अभ्यास करता है, तथा ध्यान और समाधि में पूर्ण परिपक्वता पा लेने पर 'आत्म-साक्षात्कार' कर लेता है । आत्म-साक्ष हो जाने से अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश रूप पाँच और वह निष्कर्म हो जाता है । उसके कर्मजन्य संस्कारों की उत्पत्ति संचय क्रिया का अभाव हो जाता है । क्लेशों का विनाश हो जाता है । नहीं हो पाती । अतः उसमें कर्म जीवात्मा में जो पूर्वजन्मोपार्जित संस्कारों और कर्मों का संचय रहा होता है, वह योगाभ्यास से सम्यग्ज्ञान हो जाने पर, उन-उन कर्मों के भोगयोग्य भिन्न-भिन्न शरीरों को काय - व्यूह से उत्पन्न करता है, तथा इन शरीरों की तीव्र कर्मभोग्य सामर्थ्य से समस्त भोगों का उपभोग करके पूर्वजन्मोपार्जित कर्मों 30. नैषधीयचरितम् - 17 / 75 32. पातञ्जल योगदर्शनम् - 2/3/9 ८ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य 31. न्यायसूत्र – प्रशस्त पादभाष्य - पृ० 70
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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