SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 340
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ जीवात्मा का स्वरूप- मर्त्य - अमर्त्य, स्थिर - अस्थिर स्वरूप वाला ब्रह्म / परमात्मा, अविद्या से संश्लिष्ट होने पर 'जीवात्मा' कहलाता है" । पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार, वह सुख / दुःख का उपभोग करता है, और जन्म / मरण को प्राप्त करता है; बल्कि, जन्म लेने से पूर्व ही अपने स्थूल, सर्वांगपूर्ण शरीर को ग्रहण कर लेता है । पश्चात् इह / परलोक का भ्रमण करता हुआ, स्वप्न तक में दोनों लोकों का ज्ञान / अनुभव, एक ही समय में प्राप्त करता है । इसी से वह सुख / दुःख का अनुभव करता है । जन्मान्तर व्यवस्था - स्थूल शरीर की शक्ति कम हो जाने पर, वह जाग्रत अवस्था से स्वप्न अवस्था में प्रवेश करता है, फिर, जर्जरित, स्थूल शरीर को छोड़कर, अविद्या के प्रभाव से, दूसरे नये शरीर को ग्रहण करता है । इस 'शरीर - परित्याग' को 'मरण' कहा जाता है । मरण की अवस्था में जीवात्मा, दुर्बल और संज्ञाहीन होकर, हृदय में स्थित हो जाता है । मरण के समय, सबसे पहले उसके रूप / ज्ञान नष्ट होते हैं, फिर अन्य इन्द्रियों के साथ-साथ, उसका अन्तःकरण भी शिथिल हो जाता है । इस समय हृदय के ऊर्ध्वभाग में एक 'प्रकाश' उदित होता है; जोकि शरीर के छिद्रों में से होकर, शरीर से बाहर निकल आता है । इस प्रकाश के साथ-साथ, उसकी जीवन-शक्ति भी बाहर निकल जाती है। इस स्थिति में भी, उसमें 'वासना' स्पष्ट दिखाई देती है । इस वासना के ही प्रभाव से, जीव के जन्मान्तर का स्वरूप निश्चित होता है" । परमपद प्राप्ति - जीवात्मा, अपने वर्तमान जन्म में, जो / जैसा करता है, उसी के अनुसार उसे अगला जन्म प्राप्त होता । इसलिए हर जीवात्मा को अपना अगला जन्म सम्यक् बनाने के लिए शुभ कर्म करने चाहिए; ज्ञान की प्राप्ति के लिए योग का अभ्यास और सद्ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए । शुभ कर्मों के करने से शुभ देह-स्वरूप और स्थान प्राप्त होता है । यदि कोई जीवात्मा, अपने जीवन काल में तपस्या / पुण्योदय के द्वारा तत्त्वज्ञान प्राप्त करता है, तो, इससे उसकी वासना का और किये हुए कर्मों का विनाश हो जाता है । सञ्चित कर्मशक्ति का ह्रास हो जाना ही 'जीवन्मुक्ति' कहा जाता है । जीवन्मुक्त अवस्था में, प्रारब्ध के योग से प्राप्त स्थूल शरीर ही रह जाता है । बाद में, प्रारब्ध के नष्ट हो जाने पर, उसका शरीर भी छूट जाता है । और, जीवात्मा 'आत्म-साक्षात्कार' का अनुभव करने लगता है । यानी, 'परमपद' को प्राप्त कर लेता है । न्यायदर्शन में आत्म-विवेचना ज्ञान का जो अधिकरण होता है, वही 'आत्मा' है । आत्मा द्रष्टा, भोक्ता, सर्वज्ञ, नित्य और व्यापक है 28 । नैयायिकों की मान्यता है - बाह्य इन्द्रियों से और मन से, आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता । इसलिए इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख, ज्ञान रूप लिंगों के द्वारा, आत्मा के पृथक् अस्तित्व का अनुमान किया जाता है । इस प्रसंग में 'आत्मा' का आशय 'जीवात्मा' है । इसी को 'बद्ध आत्मा' कहा जाता है । सुख / दुःख की विचित्रता से यह सिद्ध होता है कि हर शरीर में भिन्न-भिन्न जीवात्मा है। वही उस शरीर का, और उसके सुखों/दुःखों का भोक्ता होता है। मुक्त अवस्था में भी हर जीवात्मा स्वतन्त्र और एक-दूसरे से अलग रहता है । इसी आधार पर नैयायिकों ने मुक्त आत्माओं का अनेकत्व माना है 1 29 25. बृहदारण्यकोपनिषद् - 2 / 3 / 1 27. वही -- शांकर भाष्य - 4 / 4 / 2 29. Conception of Matter-Dr. Umesh Chandra, Chap. 11, p. 372-76. 26. वही - 4/4/2 28. न्याय भाष्य -- 1/1/9 भारतीय दर्शनों में आत्म-तत्त्व : डॉ० एम० पी० पटैरिया | ७ www.
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy