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________________ Hiसाध्वारत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ का विनाश कर देता है। जिससे उसके भावी शरीरों का विनाश हो जाता है। अब, उसका जो मौजूदा शरीर बचा रह जाता है, उसके मर जाने पर, इक्कीसों प्रकार के दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है । इसी स्थिति में मोक्ष को प्राप्त हुआ जीवात्मा 'मुक्त' कहलाता है । यही अभिप्राय आचार्य गौतम ने इस तरह से व्यक्त किया है34-'मिथ्याज्ञानस्य विनष्टे सति रागद्वेषादीनामपि नाशस्ततश्च प्रवृत्तेरभावस्तदनन्तरञ्च पुनर्जन्माभावोऽन्ते च दुःखानामभावात् 'मुक्तिः' भवतीति' । मोमांसा दर्शन में आत्मविचार नैयायिकों की तरह मीमांसा दर्शन में भी शरीर-इन्द्रिय आदि से भिन्न 'आत्मा' की सत्ता मानी गई है। किन्तु, इस दर्शन में, 'आत्मा' को भी एक 'द्रव्य' माना गया है। वेदों में कहा गया है-'यज्ञ के बाद यजमान स्वर्गलोक जाता है। मर जाने पर, यजमान का शरीर तो यहीं जला दिया जाता है। इसलिए, शरीर स्वर्ग नहीं जाता। जो जाता है, वही 'आत्मा' है । इसी तरह ‘सोऽयं जीवन मरणयोर्बन्धनान्मुच्यते' इस कथन से भी स्पष्ट ज्ञात होता है कि मुक्त होने वाला शरीर-इन्द्रिय से भिन्न, अविनाशी, एक लोक से दूसरे लोक में जाने वाला 'जीवात्मा' ही है। यद्यपि आत्मा में ज्ञान का उदय है, पर, स्वप्न अवस्था में ज्ञान का विषय उपस्थित न रहने से ज्ञान का भी अभाव रहता है। इस मान्यता के अनुसार मीमांसक का आत्मा जड़ रूप भी है, और बोधरूप भी है। __वास्तव में तो आत्मा नित्य होने के कारण कभी नष्ट नहीं होता। यही कर्ता-भोक्ता होता है। और, 'अहं' इस अनुभूति के द्वारा जाना जाता है। विभु होने के कारण सब जगह मौजूद रहता है। इसलिए देश-काल से परिच्छिन्न, यह शूद्ध ज्ञान स्वरूप36, समस्त पदार्थों का ज्ञाता है। एक शरीर में मौजद आत्मा दसरे शरीरों में मौजूद आत्माओं से भिन्न है। अतः आत्माएँ अनेक हैं। मीमांसकों की यह स्पष्ट मान्यता है । जीवात्माओं की अनेकता/भिन्नता स्वीकार करने पर ही 'बद्ध'/'मुक्त' आत्माओं की व्यवस्था बन पाती है। अन्यथा, एक जीवात्मा के 'मुक्त' हो जाने पर सभी जीवात्माओं को मुक्त हो जाना चाहिए । यड् जीवात्मा स्वानुभव से जाना जाता है। इसलिए इसका मानस प्रत्यक्ष भी यहाँ स्वीकार किया गया है। मुक्ति का स्वरूप-यह शरीर भोगों का आयतन/घर केन्द्र है। इन्द्रियाँ भोग का साधन हैं । शब्द, स्पर्श, रूप आदि इन्द्रियों के विषय भोग्य हैं । 'प्रपञ्च' पद/शब्द इन्हीं के लिये प्रयोग किया जाता है । इन्हीं सबसे जीवात्मा सुख/दुःख का साक्षात् अनुभव करता है, और अनादिकाल से 'बद्ध' बना पड़ा है। इसलिए. इन तीनों का आत्यन्तिक विनाश 'मोक्ष' है। यह, भट्टमत में स्वीकार किया गया है। पहले से उत्पन्न शरीर, इन्द्रियाँ और इन्द्रिय विषयों का विनाश, भावी शरीर, इन्द्रियाँ और इन्द्रिय विषयों का उत्पन्न न होना 'आत्यन्तिक-विनाश' कहा जाता है। इसके पश्चात् सुख-दुःख रहित मुक्त जीव 'स्वस्थ' हो जाता है । अर्थात्, ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार आदि से रहित अपने स्वरूप में स्थित जीव, ज्ञानशक्ति, सत्ता और द्रव्यत्व से सम्पन्न हो जाता है । मुक्ति प्रक्रिया-पूर्वजन्म में कमाये गये धर्म-अधर्म पुण्य-पाप आदि का, उनके फल का उपभोग 33. (क) न्यायसूत्र-- 4/2/38-- 46 35. (क) श्लोकवार्तिक-1/5, 37. वही-4 123 (स) तकंपादभाष्य-पृ०-91-92 (ख) शास्त्रदीपिका-1/1/5 38. वही--१० 123--24 34. न्यायसूत्र--1/1/2 36. शास्त्रदीपिका-१० 123 39. श्लोबतिक-1/5 भारतीय दर्शनों में आत्म-तत्त्व : डॉ० एम० पी० पटैरिया | ६ mnational www.jainer
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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