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________________ साध्वारत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ समाप्त हो जाती है तभी बहिष्कार की आती है । जो रोग दवा आदि उपचार से सकते हों उनके लिए शल्य चिकित्सा (ऑप्रेशन ) की आवश्यकता नहीं । स्थिति ठीक हो खेत में फूल भी आते हैं तो शूल भी । सागर रत्नाकर भी है और लवणाकर भी । पृथ्वी के गर्भ में बहुमूल्य स्वर्ण भी है तो कोयला भी । अनन्त आकाश में चमचमाते हुए नक्षत्र भी हैं काले कजरारे बादल भी हैं । संसार में सन्त भी हैं तो दुर्जनों की भी कमी नहीं है । अब लेने वाले ग्राहक पर अवलम्बित है कि वह किसे ग्रहण करना पसन्द करता है । 23] ज्ञानी का सामान्य कथन भी विशिष्ट अर्थ को लिए हुए होता है जैसे चित्रकार के द्वारा खींची गई टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं में भी किसी चित्र की आकृति - कल्पना छिपी रहती है । चिन्तन के क्षणों में मैं बैठी - बैठी सोच रही थी कि नाक और कान हर समय खुले रहते हैं । उनको बन्द करने की व्यवस्था नहीं है । पर आँख और जीभ के लिए कुदरत एक विशिष्ट व्यवस्था की है - जब आवश्यकता हो तभी खुला रखो, शेष समय उसे बन्द कर दो। पर आज का मानव जिसे कुदरत ने बन्द रखना पसन्द किया है उन्हें खुला रखना पसन्द करता है । 0 लोग आकृति को नहीं प्रकृति को देखते हैं । जलेबी टेड़ी-मेढ़ी होती है किन्तु मधुर रस के कारण वह सभी को प्रिय हो जाती है । वैसे ही प्रकृति / स्वभाव की सरसता से ही मानव सर्वप्रिय बन सकता है हमने एक स्थान पर देखा - एक ऐसा मकान जिसमें एक वार नहीं सात बार प्रतिध्वनि सुनाई देती थी । जिस प्रकार की आवाज होती उसी प्रकार की प्रतिध्वनि पुनः कानों में आती । मैं सोचने लगी -- ध्वनि की प्रतिध्वनि होती वैसे ही जैसा हम है व्यवहार करते हैं वैसा ही २२० | तृतीय खण्ड : कृतित्व दर्शन प्रतिव्यवहार हमें मिलता है । इसलिए साधक को चाहिए कि वह सभी के साथ सद्व्यवहार करे । [] चिन्तनशील व्यक्ति का मस्तिष्क निनाण किए हुए खेत के सदृश होता है । जिसमें किंचित् मात्र भी क्लूड़ा-कचरा नहीं होता । पर जिन व्यक्तियों में चिन्तन का अभाव है उनका मस्तिष्क बिना जोते हुए उस खेत की तरह होता है जिसमें स्वतः उत्पन्न हुआ घास-फूस होता है, जिसका कोई उपयोग नहीं होता । अविचारी का मस्तिष्क निरर्थक विचारों से भरा हुआ होता है । [] किसी भी महान कार्य को प्रारम्भ करने में अत्यधिक श्रम करना पड़ता है। जब कार्य प्रारम्भ हो जाता है तो उसे चलाने के लिए फिर उतना श्रम नहीं करना पड़ता जैसे इंजन को प्रारम्भ करते समय ज्यादा ईंधन की आवश्यकता होती और जब इंजन प्रारम्भ हो जाता है तो ईंधन की खपत भी कम होती है । 1] जितना चिन्तन गहराई को लिये हुए होगा उतनी ही अध्ययन में परिपक्वता आयेगी । और जितना अधिक मनन होगा उतना ही अधिक चिन्तन में निखार आयेगा । भोजन के पाचन के बिना रस नहीं बनता और बिना रस के शरीर में शक्ति का संचार नहीं होता । [] चिन्तन के क्षणों में, मैं बैठी बैठी सोच रही थी कि मानव ने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अपूर्व प्रगति की है और पशु जहाँ के तहाँ हैं । इसका कारण क्या है ? प्रज्ञा ने समाधान किया कि मानव को अपने पूर्वजों से अनुभव का अमृत निधि के रूप में सदा मिलता रहा है और उस निधि को वह और बढ़ाता रहा है पर पशु-जगत को अपने पूर्वजों से विरासत में विचारों की निधि प्राप्त नहीं हुई और न स्वयं उसमें चिन्तन शक्ति है जिससे वह पिछड़ा ही रह गया । सड़क कीचड़ से लथपथ थी । पथिक ने सोचा इस कीचड़ में तो शक्ति का अभाव है, मैं इसे www.jainel
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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