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________________ पायारत्न पुष्पवता आमनन्दन ग्रन्थ छाछ आदि का उपयोग करना ही रखकर शेष सभी वस्तुओं का त्याग कर दिया। पति मर गया, किन्तु उन्होंने रोने का भी त्याग कर दिया । सास-ससुर दोनों आकर फूट-फूट कर रोने लगे, सद्दाजी ने उन्हें समझाया-अब रोने से कोई फायदा नहीं है । केवल कर्म - बन्धन होगा । इसलिए रोना छोड़ दें। आपका पुत्र आपको छोड़कर संसार से विदा हो चुका । ऐसी स्थिति में मैं भी अब संसार में नहीं रहूँगी और श्रमणधर्म को स्वीकार करूँगी । सास और ससुर ने विविध दृष्टियों से समझाने का प्रयास किया किन्तु सद्दाजी की वैराग्य भावना इतनी दृढ़ थी कि वे विचलित नहीं हुई । देवर रामलाल ने भी सद्दाजी से कहा कि आप संसार का परित्याग न करें । पुत्र को दत्तक लेकर आराम से अपना जीवनयापन करें। किन्तु सद्दाजी इसके लिए प्रस्तुत नहीं थीं । उनके भ्राता मालचन्दजी और बालचन्दजी ने भी आकर बहन को संयम साधना की अतिदुष्करता बतायी। किन्तु सद्दाजी अपने मन्तव्य पर दृढ़ रहीं । उस समय आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज की आज्ञानुवर्तिनी महासती भागाजी की शिष्या महासती वीराजी जोधपुर में विराज रही थीं । मेहता परिवार भी महासतीजी के निर्मल चरित्र से प्रभावित था । उन्होंने कहा – तुम महासतीजी के पास सहर्ष प्रव्रज्या ग्रहण कर सकती हो किन्तु हम तुम्हें जोधपुर में कभी भी दीक्षा नहीं लेने दे सकते । यदि तुम्हें दीक्षा ही लेनी है तो जोधपुर के अतिरिक्त कहीं भी ले सकती हो । सद्दाजी ने बाड़मेर जिले के जसोल ग्राम में वि० सं० १८७७ में महासती वीराजी के पास संयमधर्म स्वीकार किया । दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् उन्होंने विनयपूर्वक अठारह शास्त्र कण्ठस्थ किये, सैकड़ों थोड़े और अन्य दार्शनिक धार्मिक ग्रन्थ भी । इसके बाद देश के विविध अंचलों में परिभ्रमण कर धर्म की अत्यधिक प्रभावना की । फक्त जो की परम्परा सद्दाजी की अनेक शिष्याएँ हुई । उनमें फत्त जी, रत्नाजी, चेनाजी और लाधाजी ये चार मुख्य थीं । चारों में विशिष्ट विशेषताएँ थीं । महासती फत्तूजी का विहार क्ष ेत्र मुख्य रूप से मारवाड़ रहा और उनकी शिष्याएँ भी मारवाड़ में ही विचरण करती रहीं । आज पूज्य श्री अमरसिंह जी महाराज की सम्प्रदाय की मारवाड़ में जो साध्वियां हैं, वे सभी फत्त जी के परिवार की हैं ।" महासती रत्नाजी का विचरण क्ष ेत्र मेवाड़ में रहा । इसलिए मेवाड़ में जितनी भी साध्वियां हैं वे रत्नाजी के परिवार की हैं । महासती चेनाजी में सेवा का अपूर्व गुण था तथा महासती लाधाजी उग्र तपस्विनी थीं । इन दोनों की शिष्या - परम्परा उपलब्ध नहीं होती है । महासती सद्दाजी ने अनेक मासखमण तथा कर्मत्तूर और विविध प्रकार के तप किये । तप आदि के कारण शारीरिक शक्ति विहार के लिए उपयुक्त न रहने पर वि० सं० १९०१ में वे जोधपुर में स्थिरवास ठहरीं । महासती फत्तू जी और रत्ना जी को उन्होंने आदेश दिया कि वे घूम-घूमकर अत्यधिक धर्मप्रचार करें । उन्होंने राजस्थान के विविध अंचलों में परिभ्रमण कर अनेकों बहनों को प्रव्रज्या दी । सं० १९२१ में महासती फत्तूजी और रत्नाजी ने विचार किया कि इस वर्ष हम सब गुरुणीजी की सेवा में ही वर्षावास करेंगी। सभी महासती सद्दाजी की सेवा में पहुँच गयीं। आषाढ़ शुक्ला पंचमी के दिन महासती सद्दाजी ने तिविहार संथारा धारण किया । सद्गुरुणीजी संथारा धारण किया हुआ देखकर उनकी नोट - महासती फत्त जी की परम्परा का वर्णन इसी लेख के अन्त में देखें । १४२ | द्वितीय खण्ड : व्यक्तित्व दर्शन www.jaine
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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