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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ अमरसिंहजी महाराज के नेतृत्व में पंचेवर ग्राम में जो सन्त सम्मेलन हुआ था उसमें उन्होंने भी भाग लिया था । और जो प्रस्ताव पारित हुए उनमें उनके हस्ताक्षर भी हैं । अनुश्रुति है कि उन्हें बत्तीस आगम कण्ठस्थ थे । एक बार वे देहली में विराज रही थीं । शौच के लिए वे अपनी शिष्याओं के साथ जंगल में पधारीं । वहाँ से लौटने के पश्चात् रास्ते में एक उपवन था उसमें एक बहुत रमणीय स्थान था जो एकान्त में था वहाँ पर बैठकर महासती जी स्वाध्याय करने लगीं । स्वाध्याय चल रही थी, इधर बृहद् नौ तत्त्व के रचयिता श्रावक दलपतसिंहजी उधर से आ निकले । उन्होंने देखा कि उपवन के वृक्षों के पत्त े दनादन गिर रहे हैं, फूल मुरझा रहे हैं । असमय में पतझड़ को आया हुआ देखकर उन्होंने सोचा इसका क्या कारण है ? इधर-उधर देखा तो उन्हें महासती जी एकान्त में बैठी हुई दिखायी दीं । श्रावकजी उनकी सेवा में पहुंचे । नमन कर उन्होंने महासती से पूछा- आप क्या कर रही हैं ? महासतीजी ने बताया कि मैं स्वाध्याय कर रही हूँ । इस समय चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति की स्वाध्याय चल रही है | श्रावकजी ने नम्रता से निवेदन किया - सद्गुरुणीजी, देखिए कि वृक्ष के पत्त े असमय में गिर रहे हैं, फूल मुरझा रहे हैं। लगता है स्वाध्याय करते समय कहीं असावधानी से स्खलना हो गई है । कृपा कर आपश्री पुनः स्वाध्याय करें । लाला दलपतसिंह जी भी आगम के मर्मज्ञ विद्वान थे । स्वाध्याय की गयी । जहाँ पर स्खलना हुई थी श्रावकजी ने उन्हें बताया । स्खलना का परिष्कार करने पर वृक्षों के पत्त गिरने बन्द हो गये और फूल मुस्कराने लगे । महासतीजी का विहार क्ष ेत्र दिल्ली, पंजाब, जयपुर, जोधपुर, मेड़ता और उदयपुर रहा हैऐसा प्रशस्तियों के आधार से ज्ञात होता है । महासती भागाजी की अनेक विदुषी शिष्याएँ थीं। उनमें वीराजी प्रमुख थीं । वे भी आगमों के रहस्यों की ज्ञाता और चारित्रनिष्ठा थीं। उनकी जन्मस्थली आदि के सम्बन्ध में सामग्री प्राप्त नहीं है। महासती वीराजी की मुख्य शिष्या सद्दाजी थीं जिनका परिचय इस प्रकार है । मोहजयी सद्दाजी राजस्थान के साम्भर ग्राम में वि० सं० १८५७ के पौष कृष्ण दशमी को महासती सद्दाजी का जन्म हुआ। उनकी माता का नाम पाटनदे था और पिता का नाम पीथोजी मोदी था । और दो ज्येष्ठ भ्राता थे । उनका नाम मालचन्द और बालचन्द था । सद्दाजी का रूप अत्यन्त सुन्दर था तथा माता - पिता का अपूर्व प्यार भी उन्हें प्राप्त हुआ था । उस समय जोधपुर के महाराजा अभयसिंहजी थे । सुमेरसिंहजी मेहता महाराजा अभयसिंह जी के मनोनीत अधिकारी थे । उन्होंने चारण के द्वारा सद्दाजी के अपूर्व रूप की प्रशंसा सुनकर उनके पिता के सामने प्रस्ताव रखा। अन्त में सद्दाजी का पाणिग्रहण उनके साथ सम्पन्न हुआ । विराट वैभव और मनोनुकूल पत्नी को पाकर मेहताजी भोगों में तल्लीन थे । सद्दाजी बाल्यकाल से ही धार्मिक संस्कार मिले थे । इस कारण वे प्रतिदिन सामायिक करती थीं और प्रातःकाल व सन्ध्या के समय प्रतिक्रमण भी करती थीं । एक बार सद्दाजी एक प्रहर तक संवर की मर्यादा लेकर नमस्कार महामन्त्र का जाप कर रही थीं, उसी समय दासियाँ घबरायी हुई और आँखों से आंसू बरसाती हुई दौड़ी आयीं और कहा 'मालकिन, गजब हो गया । मेहताजी की हृदय गति एकाएक रुक जाने से उनका प्राणान्त हो गया है । उन्होंने सदा के लिए आँखें मूंद ली हैं ।' यह सुनते ही सद्दाजी ने तीन दिन का उपवास कर लिया और दूध, दही, घी, तेल और मिष्ठान इन पांचों विगय का जीवन पर्यन्त के लिए त्याग कर दिया । भोजन में केवल रोटी और जैन शासन प्रभाविका अमर साधिकाएं एवं सद्गुरुणी परम्परा : उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि । १४१ www.jainell
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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