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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ..... यशोभिरामः स परां प्रपेदे श्रेष्ठामुपाचार्यपप्रतिष्ठाम्द । न योग्यता पुण्यवतां मुनीनां, क्वचिन् कदाचिद् विफलत्वमेति ॥८॥ सुतां सुतञ्चापि तथा 5 वलोक्य, मातापि दीक्षां शिवदां बभार । तपः प्रभावात्त वपुःप्रभातः प्रभावतीति विदिता प्रथिव्याम् ॥६॥ गुरोमुखात् सम्यगधीत्य तानि शास्त्राणि यस्या मतिरुज्ज्वला भूत् । न कार्य सिद्धि भजते कथञ्चित् सत्कारणेष्वत्र मनाग विलम्बम् ॥१०॥ यस्या उपाध्याय पद प्रतिष्ठो, विद्यागुरुः 'पुष्कर'-नामधेयः । शुम्मद् यशाः श्लाघ्यगुणोऽ जनिष्ट, विद्या निधिर्ध्यानधनोऽ स्तकामः ॥११॥ अपास्तनिःशेषपरिग्रहा या, रत्नत्रयाभूषणभूषितश्रीः । निराकृतात्मीय जनाभिषङ्गा, प्रशस्त चर्या निरता रराज ।।१२।। इसके उपरान्त उन यशस्वी मुनि देवेन्द्र कुमार जी ने श्रेष्ठ प्रतिष्ठित 'उपाचार्य' का पद प्राप्त किया। पुण्यवान् मुनियों की योग्यता कभी कहीं भी विफल नहीं होती ॥ ८॥ पुत्र और पुत्री को दीक्षित देखकर उनकी मां ने भी मुक्तिदायिनी भागवती दीक्षा ग्रहण कर ली। तपस्या के प्रभाव से उनके देह वी प्रभा अद्भुत हो गई । इसी कारण से उनका 'प्रभावती' नाम सर्वत्र प्रसिद्ध हो गया ।। ६ ।। गुरुमुख से प्रसिद्ध-प्रसिद्ध शास्त्रों को पढ़ कर उनकी बुद्धि में निखार आ गया। अच्छे साधनों के मिलने पर कार्य की सिद्धि में तनिक-सा भी विलम्ब नहीं होता ॥१०॥ उनके गुरु उपाध्याय मुनि पुष्कर जी म. सा० हैं, जो यशस्वी हैं, जिनके गुण श्लाघनीय हैं; जो समस्त विद्याओं के निधि हैं; जो ध्यान के धनी है और हैं बाल ब्रह्मचारी ॥ ११ ॥ महासती पुष्पवतीजी म. सा० ने समस्त परिग्रह का परित्याग कर दिया था पर वे तीन रत्नों (सम्यग् दर्शन आदि) के आभूषण से विभूषित थीं। आत्मीय जनों के सम्पर्क को छोड़ कर वे प्रशस्तचर्या के परि पालन में तत्पर रहने लगी और इसी से उनकी शोभा निराली हो गई ॥ १२॥ महासती पुष्पवतीजी म० क्षमा की पवित्र मूर्ति बन गई । उनका प्रभाव सर्वत्र प्रकट होने लगा। घोर-सेघोर उपसर्गों के आने पर भी उनके मन ने कभी धैर्य नहीं छोड़ा और न कभी निर्भीकता का भी परित्याग किया ॥ १३ ॥ प्रवचन-सभाओं में जिनके मधुर वचनामृत का पान करके किसी भी भव्य पुरुष ने स्वर्ग के अमृत को पीने की चाह नहीं की-यह सुन कर बड़े-बड़े विद्वान चकित होकर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते रहे ॥१४॥ महासती पुष्पवती क्षमाया, भूर्तिः पवित्रा प्रकटप्रभावा। घोरोपसर्गेष्वपि यन्मनो नो, मुमोच धर्यं न च निर्भयत्वम् ।।१३।। वाणी यदीयां मधुरां निपीय, दिव्यां सूधां नेच्छति कोऽपि भव्यः । इत्थं समाकर्ण्य सविस्मयं के चक्रः प्रशंसां विबुधा न तस्याः ॥१४॥ सम्पादितं वा लिखितं समस्तं, साहित्यमस्या विदुषां वरेण्याः । हृदा ऽ भिनन्दन्ति तथा पठन्ति, 'ये ऽन्ये च लोका मुदमाप्नुवन्ति ।।१५।। उनके द्वारा सम्पादित एवं लिखित समस्त साहित्य का विशिष्ट विद्वान हृदय से अभिनन्दन करते हैं तथा जो लोग पढ़ते हैं, वे प्रसन्नता का अनुभव करते ॥१५॥ ११८ प्रथम खण्ड : शुभ कामना : अभिनन्दन www.jain
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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