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________________ साध्वारत्न पुष्पवता आमनन्दन ख्याता सर्वत्र लोकेऽस्मिन् अमृतलाल -पं. श्री नाभिसूनुं प्रथमं जिनेन्द्र, नमामि सेन्द्राचितपादपीठम् । यत्पादसेवारत चित्त वृत्तिर्न S, स्तबाधं समुपैति मोक्षम् ॥१॥ श्री पुष्पवत्या जनुषा पवित्रं, यथोदयाख्यं पुरमस्ति धन्यम् । तथा न किञ्चित् पुरमन्यदस्ति, तत्तुल्य पुण्यं निखिलेऽ पि लोके ॥ २ ॥ या बाल्यकालेsपि समं सखीभिः, साध्वी समाजं समुपेत्य भक्त्या । तस्योपदेशामृतयानलीना न वाञ्छति स्म स्वगृहं प्रयातुम् ||३|| आहूय तास्ताः स्ववयः समानाः, सायं वयस्या निखिला दिनान्ते । चिक्रीड साध्वी कलितां तपस्या मुद्दिश्य नित्यं सममेव ताभिः || ४ || जन्मान्तर-प्राप्त-विराग भावाद्, या यौवनात् प्रागपि दीक्षिताऽभूतु । सत्सङ्गमो भव्य जनान् करोति, समुत्सुकान् मुक्तिमवाप्तुमाशु || ५॥ तां दीक्षितां पुष्पवतीं निरीक्ष्य, दीक्षोत्सुकोऽ भूदनुजोऽपि तस्याः । तत्सोऽपि जग्राह जिनेन्द्र दीक्षां 'देवेन्द्र' - नाम्ना वनिविश्रुतोऽभूत् ॥ ६ ॥ शास्त्राणि नाना समधीत्य सोऽयं, गुरुप्रसादाद् विधो बभूव । ग्रन्थाननेकान् विरचय्य लेखानु, ल्लेखनी यांश्च विलिख्य सद्यः ||७|| जैन (अहमदनगर) श्री नाभिराय के पुत्र प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव को - जिनका पादपीठ भी देवों के द्वारा पुजा जाता था- -भक्तिपूर्वक नमन करता हूँ। जिनके चरणों की सेवा में मन लगाने वाला मानव समाज निर्बाध मोक्ष को प्राप्त करता है ॥ १ ॥ पूज्या महासती पुष्पवती जी म० सा० के जन्म से पवित्र जैसा उदयपुर धन्य है । वैसा पुण्यशाली अन्य कोई पुर सारे संसार में नहीं है ॥ २ ॥ जो महासती पुष्पवतीजी म० सा० अपने बचपन में भी अपनी सहेलियों के साथ साध्वियों के पास जाकर भक्तिपूर्वक उनके दर्शन करती थी और उनके उपदेशामृत के पान करने में ऐसी लीन हो जाती थी कि उन्हें अपने घर जाने तक की भी इच्छा नहीं होती थी ॥ ३ ॥ जो सायंकाल अपनी हम उम्र समस्त सहेलियों को बुलाकर दिन के समाप्त होते ही उनके साथ साध्वियों की तपस्या को लक्ष्य बनाकर प्रतिदिन खेला करती थीं । खेल का मुख्य उद्देश्य था महासतियों की तपस्या का अभिनय करना ॥ ४ ॥ * पिछले जन्म के वैराग्य के संस्कार से जिन्होंने युवावस्था के आने से पहले ही भागवतो दीक्षा ले ली । सच तो यह है कि सन्तों का समागम भव्यात्माओं को शीघ्र ही मोक्ष पाने के लिए उत्कण्ठित कर देता है ॥ ५ ॥ पुष्पवतीजी को दीक्षित देखकर उनके छोटे भाई भी दीक्षा लेने के लिये उत्सुक हो गये । इसलिए उन्होंने भी दीक्षा ग्रहण कर ली और उनका देवेन्द्र कुमार जी यह नाम शीघ्र ही यत्र-तत्र सर्वत्र प्रसिद्ध हो गया ।। ६ ।। गुरु ( उपाध्याय पुष्कर मुनि म० सा० ) की कृपा से विविध शास्त्रों का अध्ययन करके वे विद्वान हो गये, और अनेक ग्रन्थों का प्रणयन एवं उल्लेखनीय लेखों को लिखकर उन्होंने बहुत ख्याति प्राप्ति की ॥ ७ "I ख्याता सर्वत्र लोकेऽस्मिन | ११७ www.air
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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