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________________ HAसावान युध्यता आभनन्दन ग्रन्थ प्रभावतीजी महाराज व महासती चन्द्रावतीजी व हैं । तुझे संसार में रहना पड़ेगा। संसार में रहकर महासती प्रियदर्शनाजी की सेवा करते हुए । सेवा ही तू धर्म-साधना करता रहेगा। पर एक बार धर्म बहुत ही कठिन है। यह आन्तरिक तप है। तुझे नियम दिलाता हूँ कि तेरे सन्तान की इच्छा दीक्षा जिस संघ में यह भावना पूर्ण विकसित है, वह संघ लेने की हो तो इन्कार न होना। गुरुदेव के आदेश सदा प्रगति के पथ पर बढ़ता है। को स्वीकार कर मैंने सहर्ष नियम ग्रहण कर महासती श्री पुष्पवतीजी में अनेक गुण हैं। वे लिया। जहाँ भी पधारी हैं । वहाँ अपने गुणों की सौरभ पर मेरे अन्तर्मानम में यह विचार उद्बुद्ध हो फैलाई है । उनके गुणों को सुनकर मेरा हृदय आनन्द रहा था कि मेरा अभी न तो पाणिग्रहण हुआ है विभोर हो उठता है । इसीलिए श्रद्धालुगण अपनी और न वागदान ही हुआ है। फिर सन्तान की बात अनन्त आस्था को अभिव्यक्ति देने के लिए अभि- तो आकाश कुसुमवत है । पर ज्ञानी गुरुदेव ने जो नन्दन ग्रन्थ निकाल रहे हैं । यद्यपि महासतीजी की देखा और जिसकी कल्पना भी नहीं थी सहज में स्वयं की इच्छा नहीं है तथापि श्रद्धालुओं की ही मेरा विवाह हो गया। तथा मेरे पाँच पुत्र और भावना का प्रश्न रहा और उन्हीं की भावना को तीन पुत्रियाँ भी हुई। यकायक सर्प डंस से डंसित प्रस्तुत ग्रन्थ में मूर्त रूप दिया गया है । हम सभी की होकर पत्नी का देहान्त हो गया । मैं सोचने लगा। यही मंगल कामना है कि महासतीजी पूर्ण रूप से जीवन कितना नश्वर हैं ? मैं तो संसार सागर में स्वस्थ रहें। तथा भारत के विविध अंचलों में ही रह गया। गुरुदेव ने कहा था कि सन्तान दीक्षा विहार कर धर्म की विजय-वैजयन्ती फैलाए, उनका ले तो इन्कार न होना । किन्तु सन्तानों ने गुरुदेवों तेजस्वी व्यक्तित्व और कृतित्व सभी के लिए प्रेरक का सान्निध्य ही प्राप्त नहीं किया है, तो वैराग्य रहे। हम उनके जीवन से सदा प्रेरणा प्राप्त कर कैसे उबुद्ध हो सकता है ? सन् १९७२ में साण्डेराव __ अपने जीवन को महान बनाएँ । यही उनके प्रति में राजस्थानी मुनियों का सम्मेलन था । मैं उस श्रद्धार्पण हैं। सम्मेलन में गुरुदेवों के दर्शन हेतु पहुँचा । और मैंने पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी महाराज साहब से प्रार्थना की कि मैं तो साधु नहीं बन सका श्रद्धा के दो बोल हुँ। छोटे बच्चे हैं। यदि आप उन्हें प्रतिबोध दें। -रतनलाल मोदी, उदयपुर उनके भाग्य यदि प्रबल होंगे तो संयम-मार्ग को स्वीकारकर अपने जीवन को धन्य बना सकेंगे। __ महास्थविर श्री ताराचन्दजी महाराज की पूज्य गुरुदेव ने फरमाया महासती श्री पुष्पवतीजी असीम कृपा हमारे प्रान्त पर रही। पहाड़ियों से और महासतीजी इन दिनों में गोगुन्दा या बगडंदा घिरे हए इस प्रान्त में सद्गुरुदेव समय-समय पर विराज रही हैं । आप पहले एक बच्चे को सतीजी भक्तों को सम्भालने के लिए पधारते रहे । जिस के दर्शन करा दें। उनके सान्निध्य में कुछ दिन कारण हमारे में धार्मिक संस्कार अभिवद्धि को रहने दें। जिससे बालक में संस्कारों का बीज वपन प्राप्त होते रहे। जब गुरुदेव श्री हमारे प्रान्त होगा । मैं भी विहार कर उधर ही आ रहा हूँ। झालावाड़ में पधारते तब हम निरन्तर उनकी सेवा गुरुदेव श्री के संकेत से मैं बालक चतुरलाल को में रहते । उनके पावन सान्निध्य को पाकर मेरे लेकर महासतीजी की सेवा में पहुंचा। मैंने तो मन में संसार से विरक्ति हुई । पर गुरुदेव तो ज्ञानी पहले भी अनेक बार माताजी महाराज और बहिनजी थे । उन्होंने कहा रतन ! तेरे भोगावली कर्म अवशेष महाराज के दर्शन किए थे। उनकी सेवा में भी .................. . ...... श्रद्धा के दो बोल | १०३ HoAF www.jain
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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