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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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मैंने उन चर्चाओं में पाया कि आपका अध्ययन परम विदूषी साध्वीरत्न श्री पुष्पवतीजी इसी गम्भीर हैं, सुलझा हुआ है । आप किसी भी प्रश्न प्रकार की साध्वी हैं, जिन पर हमें गर्व है । उनका का उत्तर बहुत ही शान्ति से देती हैं। साथ में आप
अध्ययन विशाल है, चिन्तन गहरा है। विश्लेषण जिज्ञासु भी हैं। कोई भी नई बात जानने के लिए
करने की शक्ति अद्भुत है । वे ज्ञानी हैं किन्तु उनमें आप सदा तत्पर रहती हैं । जिज्ञासु वृत्ति के कारण ज्ञान का अहंकार नहीं है । विनय और विवेक से ही आपका इतना विकास हो सका।
समन्वित उनका जीवन-दर्शन प्रेरक है। महासती पुष्पवतीजी उदयपुर की पावन-पुण्य मैं वर्षों से कार्यकर्ता होने के नाते भूतपूर्व पूज्य भूमि में जन्मी, वहीं पर बड़ी हुई, वहीं पर उन्होंने श्री अमरसिंहजी महाराज के सम्प्रदाय के सभी आर्हती दीक्षा ग्रहण की और वहीं पर रहकर सन्त-सतियों के निकट सम्पर्क में रहा है। कई बार अधिकांश अध्ययन किया । आप जैसी विदुषी कड़वे और मीठे अनुभव भी हए हैं। पर मैं यह साध्वियों पर हमें गौरव है । आपने राजस्थान और अधिकार के साथ कह सकता हूँ कि महासती पुष्पमध्यप्रदेश गुजरात, महाराष्ट्र आदि में विचरण वतीजी बहुत ही सुलझी हुई, चिन्तनशीला साध्वी कर धर्म की प्रभावना की।
हैं । उनके जीवन में सरलता है । सहज स्नेह और दीक्षा स्वर्ण जयन्ती के सुनहरे क्षणों में मैं सद्भावना है । समाजोत्थान की मंगलमय भावना अपने हृदय की अनन्त श्रद्धा-समर्पित करता हैं। सदा उनके अन्तर्मानस में अठखेलियाँ करती रहती
और जिनेश्वर देव से यह मंगल कामना करता हूँ हैं । वे स्वयं अनुशासन में रहती हैं और दूसरों को कि आप स्वस्थ रहकर सदा मार्ग दर्शन देती भी अनुशासित रहने की प्रेरणा देती हैं। उनका यह
मन्तव्य है कि गुरु आज्ञा मानने में विचार नहीं करना चाहिए । जो भी गुरु की आज्ञा हो उसे सहर्ष स्वीकार करना चाहिए । जब हमने जीवन नैया की
डोर गुरुओं को समर्पित कर दी है तो फिर उनकी प्रेरक जीवन दर्शन
आज्ञा के सम्बन्ध में हमें चिन्तन करने की आव-श्री चुन्नीलाल धर्मावत, श्यकता नहीं । वे जो भी आज्ञा और आदेश देंगे। (कोषाध्यक्ष-:श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, उदयपुर) वह हमारे हित के लिए ही होगा । उसे हमें बिना
न नु नच किये मानना चाहिए। उसी में संघ और hotosekesledeoesdesese deskesiestasleele.kesidedeosdededesi. so elesde abodesdesesesesed सन्त-सतियों का हित सन्निहित है।
वेदनीय कर्म की प्रबलता के कारण उनके सिर ! __एक बार बनार्ड शा ने कहा-मैंने भारत में दो अद्भुत वस्तुएँ देखी । एक महात्मा गाँधी और
में लम्बे समय तक भारी व्यथा रही। किन्तु सदा ही दूसरे जैन श्रमण और श्रमणियां । जो भौतिकवाद
उन्होंने उस व्यथा को शान्ति के साथ सहन किया। के युग में भी त्याग के पावन प्रतीक हैं। वस्तुतः
जब कभी भी कोई भी तकलीफ हुई । उस तकलीफ
__ को वे बिना घबराए धैर्य के साथ सहन करती है। जैन श्रमण और श्रमणियों का त्याग अनूठा हैं। उनकी मिशाल अन्यत्र देखने को नहीं मिल सकती। उनके चेहरे पर कभी भी खिन्नता की रेखाएँ उभहजारों वर्षों से यह पवित्र धारा चली आ रही है। रती नहीं । वे सदा आत्मभाव में मस्त रहती है। आज भी जैन शासन में अनेक प्रभावशाली, तेजस्वी,
अध्ययनशीला होने पर भी उनमें सेवा की ओजस्वी और वर्चस्वी सन्त और सतियाँ है । उनका
भावना सराहनीय है। मैने देखा है-उनको सद्जीवन-दर्शन पावन-प्रेरणा का अजस्त्र स्रोत है।
गुरुणीजी श्री सोहन कुंवरजी महाराज, माताजी श्री
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MARRRRRRIA
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१०२ प्रथम खण्ड : शुभकामना : अभिनन्दन
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