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________________ सम्प्रदाय सर्वज्ञ अर्हत् परमात्मा द्वारा प्ररुपित धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं करता। यह एक सामान्य छद्मस्थ मनुष्य का बनाया हुआ सम्प्रदाय है। मुझे सर्वज्ञ भाषित प्राचीन धर्म की खोज करनी चाहिए । जिनेश्वर परमात्मा द्वारा प्ररुपित धर्म के पालन से ही मेरा कल्याण हो सकता है। ___ इस तरह के अनेक संकल्प-विकल्प उनके मन में उठते थे। तरह-तरह के प्रश्नों और संशयों से उनका चित्त घिर जाता था। भीतर ही भीतर एक संग्राम चलता रहता था। कभी-कभी वे चिंतन करते हुए अशान्त, उद्विग्न और अस्वस्थ भी हो उठते ते । कई-कई दिनों के मनोमंथन के बावजूद वे किसी समाधान पर नहीं पहुंच पाते थे। कई वर्षों तक वे असमंजस की स्थिति में रहे। उन्होंने अपनी इस मानसिक स्थिति का किसी को पता नहीं लगने दिया। वे किसी ऐसे व्यक्ति की खोज में थे जो उनसे अधिक अनुभवी और ज्ञानी हो । जो कदाग्रह और रूढ़-परम्परा से ऊपर उठा हुआ हो ।जो उनकी मानसिक उथल-पुथल को अच्छी तरह समझ सकें । जो उन्हे शास्त्र सम्मत सत्य मार्ग का निर्देश करें और जो उन्हें संशयों के दलदल से बाहर निकाल कर समाधान की स्वच्छ भूमि प्रदान करें। वे उसीके समक्ष अपनी मनोव्यथा और मनोमंथन व्यक्त करना चाहते थे। अन्त में उनकी यह खोज पूर्ण हुई । ई. सन् १८६३ का चातुर्मास उन्होंने आगरा में किया। उनका यह चातुर्मास उनके जीवन का ऐतिहासिक, अभुतपूर्व, उल्लेखनीय और चिरस्मरणीय चातुर्मास था । यह चातुर्मास उनके जीवन में वरदान सिद्ध हुआ। यहां उनके जीवन में एक मोड़ आया। ऐसा मोड़, जिसने उनके सम्पूर्ण जीवन की धारा को बदल दिया। पिछले कई वर्षों से जो संशय उनके मन को विचलित कर रहे थे, यहां उनके वे सभी संशय समाप्त हो गए। __ इस आगरा शहर में मुनि रत्नचन्दजी महाराज बिराजमान थे । वे आगम शास्त्रों के पारंगत, वर्षा के अनुभवी और वय:वृद्ध संत थे। स्थाकनवासी सम्प्रदाय में उनका सर्वोच्च स्थान था। पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज को यह विश्वास था कि मेरी शंकाओं का समाधान पंडित श्रीरत्नचन्दजी ही कर सकते हैं। यद्यपि आत्मारामजी महाराज ने सभी मूल आगम शास्त्र पढ़ लिए थे, फिर भी पंडित श्रीरत्नचंदजी महाराज से उन्होंने शास्त्रों का पुनरावर्तन प्रारंभ किया। उनमें आचारांग, स्थानांग, सूत्रकृतांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, प्रज्ञापना, नन्दी, बृहत्-कल्प, व्यवहार, निशीथ आदि आगम सूत्र प्रमुख हैं। जिन-जिन सूत्रों, शब्दों और सन्दर्भो के विषय में उन्हें शंका थी, उन सभी का उन्होंने २६६ श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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