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सत्य की खोज
सत्य के विषय में पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज का कहना था “मैं सत्य का पुजारी हूं और सत्पथ से मुझे कोई डिगा नहीं सकता। मैं वही कहूंगा, जो सत्य है । मैं उसे ही मानूंगा, जो सत्य है । सत्य को प्रकट करने में मुझे कोई हिचक नहीं ।”
'सत्य को साकार करने के लिए साहस और हिम्मत की आवश्यकता रहती है। सत्य का मार्ग निर्भयता का मार्ग है । डरता वह है, जिसे सत्य कहने का साहस नहीं है और जो सत्य को छुपाता है । मैं सत्य के पक्ष में हूँ, इसलिए निर्भय हूँ।'
_ 'मैं किसी गुरु या दादा गुरु का बंधा हुआ नहीं हूं। मेरे लिए तो भगवान महावीर स्वामी के शासन के शास्त्रों का मानना ही ठीक है। यदि किसी के पिता या पितामह कुंए में गिरे थे, तो क्या उसके पुत्र को भी उसी में गिरना चाहिए? ___'सत्य की खोज निरंतर जारी रहनी चाहिए । इस खोज के लिए न उम्र बाधक है, न काल और न देश किसी भी समय, देश और अवस्था में हमें सत्य प्राप्त हो सकता है।'
सत्यान्वेषी मुनि आत्मारामजी को यह समझते देर नहीं लगी कि कोई न कोई ऐसा सत्य है जिसे सम्पूर्ण स्थानकवासी सम्प्रदाय छुपा रहा है । मुझे इस सत्य को अनावृत कर देना चाहिए।
उनके मन में एक विचार बार-बार उठता था, वह यह कि संसार छोड़कर आत्मकल्याण के मार्ग को प्रशस्त करने के लिए मैं जिस जैन सम्प्रदाय को सच्चा समझकर दीक्षित हुआ हूं, वह वास्तव में भगवान महावीर स्वामी द्वारा प्रवर्तित नहीं है। इस सम्प्रदाय का इतिहास तो केवल तीन सौ वर्ष पुराना है। इसे चलाने वाले तो लौंकाशाह नाम के श्रीमाली गृहस्थ थे। उनकी शिष्य परम्परा में लवजी' यति हुए । हमारे आद्य पुरुष ‘लवजी' हैं । लवजी सूरत (गुजरात) के रहने वाले श्रीमाली वणिक थे। उन्होंने लौंकागच्छ की परम्परा के बजरंग यति के पास दीक्षा ग्रहण की। कुछ दिनों बाद किसी बात पर झगड़ा हो जान के कारण वे अपने गुरुजी से अलग होकर विचरने लगे और मुख पर मुंहपत्ति बांध ली। जैन परम्परा के साधु वेष से भिन्न प्रकार का साधु वेष देखकर जब किसी गृहस्थ ने उन्हें रहने के लिए स्थान नहीं दिया तो वे एक टूटे हुए मकान में रहने लगे। गुजरात-सौराष्ट्र में टूटे-मकान को ढूंढ कहते हैं। ऐसे मकान में रहने के कारण लोग उन्हें ढूंढिया कहने लगे। उसी लवजी की परंपरा में दीक्षित होने के कारण लोग हमें ढूंढिया कहते हैं और हमारे सम्प्रदाय को ढूंढक पंथ।
केवल इतना सा इतिहास है स्थानकवासी या ढूंढक सम्प्रदाय की उत्पत्ति का। यह श्रीमद् विजयानंद सूरिः जीवन और कार्य
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