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समाधान पूछा । पंडित रत्नचंदजी महाराज ने पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज के आगे अपना ज्ञान का खजाना खोल दिया। उनके ज्ञान की विशेषता यह थी कि वे आगम सूत्रों के मूलार्थ के साथ-साथ पूर्वाचार्यों द्वारा कृत निरुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका का भी सहयोग लेते थे, उन्होंने पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज को अपने प्राचीन ज्ञान भंडार में से श्रीशीलांगाचार्य, श्रीअभयदेव सूरि, श्री हरिभद्रसूरि, श्रीमलय गिरी एवं अन्तिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामी द्वारा आगमों पर रची गई व्याख्याओं के ऐसे-ऐसे दुर्लभ ग्रन्थ दिखाए जिन्हें आत्मारामजी महाराज ने न कभी देखा था न पढ़ा था।
आगम सूत्रों के पठन-पाठन और पुनरावर्तन के इसी क्रम में एक दिन मूर्तिपूजा का सन्दर्भ आ गया। इस पर पंडित रत्नचन्दजी महाराज ने कहा कि हमारे आगमों में 'अरिहंत चेइयाई' शब्द का बार बार प्रयोग हुआ है। हम लोग इसका अर्थ कहीं पर 'अरिहंत का ज्ञान' और कहीं पर 'अरिहंत के साधु' करते हैं। परंतु यह इसका वास्तविक अर्थ नहीं है। हमारा यह अर्थ आगम विरुद्ध है। इसका वास्तविक अर्थ है अरिहंत का वैत्य या अरिहंत का मंदिर।
इसी तरह आगमों में 'जिन पडिमा' शब्द आया है। उसमें 'जिन' शब्द का अर्थ हम 'कामदेव' करते हैं। हमारा यह अर्थ भी मूर्खता पूर्ण है। इसका स्पष्ट अर्थ है- जिन अर्थात् वीतराग परमात्मा की प्रतिमा ।
___पंडित रत्नचन्दजी महाराज ने पूज्य श्रीआत्मारामजी महाराज से कहा कि हमारे ढूंढक या स्थानकवासी सम्प्रदाय के उद्भव होने का मूल कारण ‘मूर्तिपूजा' है । 'लौंकाशाह' जो विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में जन्मे थे। वे कई वर्षों तक जैन परम्परा के शास्त्रीय सिद्धान्त रुप जिनमूर्ति की उपासना करते रहे। एक बार वे यतियों से अपमानित हुए और उसी समय बुतशिकन या मूर्तिभंजक मुसलमानों के परिचय में आए। बुतशिकन लोगों से प्रभावित होकर लौंकाशाह ने जैन धर्म में सर्व प्रथम मूर्तिपूजा का उत्थापन निंदा प्रारंभ की। जबकि मूर्तिपूजा आगम सम्मत थी।
पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज को मूर्तिपूजा के विषय में जो भी भ्रम और शंकाए थी, उन सभी का पंडित रत्नचन्दजी ने निरसन किया।
एक दिन साधु के शास्त्रीय वेष, प्रतिक्रमण और मुंहपत्ति मुख पर बांधने के विषय में विचार-विमर्श हुआ। इस पर पंडित रत्नचन्दजी महाराज ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हमारे सम्प्रदाय का जो साधु-वेष है और मुख पर मुंहपत्ति बांधने की जो परंपरा है वह न तो
श्रीमद् विजयानंद सूरि: जीवन और कार्य
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