SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उनकी माता मरुदेवी कहती है कि मेरा रिखब कब घर लौटेगा। उसे यहां किस बात की कमी थी। मेरे अन्तिम अवस्था में तो तुम्हारा ही सहारा था। यह सोचते सोचते जब उन्होंने ऋषभ देव को विनिता नगरी में पधारे हुये देखा और देखी प्रभु की पार्षदा की भव्यता, देव दुंदुभि की मधुरता तो माता मरुदेवी के हृदय में भावोल्लास चरम सीमा को पार गया प्रभु ऋषभदेव के शिवरमणि रूप को निहारते निहारते केवलज्ञानी बन मोक्ष को प्राप्त हुई। भरत चक्रवर्ती ऋषभदेव प्रभु के सबसे बड़े पुत्र भरत चक्रवर्ती जब दर्पण भवन में बिराजमान थे तब अनायास उनकी एक अंगुली में से अंगुठी गिर पड़ी और उन्हें वह अंगुली शोभारहित लगने लगी। सोचते सोचते उन्होंने अपने शरीर पर से सर्व आभूषणों को उतार दिया और अपने देह को कान्तिहीन देख उन्हें यह सब नश्वर लगने लगा और सोचा यह अनित्य संसार भी तो नश्वर ही है और ऐसी अनित्य भावना भाते भाते उन्हें उसी क्षण केवलज्ञान प्राप्त हुआ। बाहुबली ऋषभदेव प्रभु के दूसरे पुत्र और भरतचक्रवर्ती के छोटे भाई थे। बाहुबली को जब प्रभु ऋषभदेव को वंदन करने की भावना हुयी तो उनके मन में एक विचार आया कि प्रभु के साथ मेरे छोटे ९८ भाई जो केवली हैं उनको भी मुझे वंदन करना पड़ेगा सो क्यों नहीं मैं तप कर पहले केवलज्ञान प्राप्त करूं। और जब तपस्या करते करते १२ महीने व्यतीत हो गये तो काउसग्ग ध्यान में खड़े बाहुबली को सम्बोधन करने प्रभु ऋषभदेव ने ब्राह्मी और सुन्दरी दो साध्वियों को भेजा। और बाहुबली से कहा कि वीरा हमारे, गज से उतरिये, गजपर बैठे बैठे कभी केवलज्ञान नहीं प्राप्त होता । यह बात अभिमान रूपी गज (हाथी) की थी अपनी भूल को तुरन्त समझते हुये बाहुबली ने प्रभु को वन्दन करने के लिये पांव उठाये उन्हें तुरन्त केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। गौतम स्वामी __प्रभु महावीर स्वामी के प्रति गौतम स्वामी का अत्यन्त अनुराग होने से उन्हें केवलज्ञान नहीं हो रहा था हालांकि स्वयं गौतम स्वामी चार ज्ञान सम्पन्न थे और जिन्हें वे दीक्षित करते थे उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो जाता था। अत: प्रभु ने अपने अन्तिम समय में गौतमस्वामी को देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध करने भेजा और जब गौतम स्वामी पुन: प्रभु के पास लौटते हैं तो प्रभु का निर्वाण प्राप्त हुये देख अत्यन्त भाव विभोर हो गये और विलाप करते करते उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। जैन दर्शन और केवलज्ञान १९३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy