SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुष्पचूला साध्वी पुष्पचूल राजा के राज्य में जब एक बार दुष्काल पड़ा तब वहां विराजमान अर्णिका-पुत्र आचार्य के सब शिष्य उन्हें छोड़ देशान्तर को चले गये परन्तु आचार्य से प्रतिबोध पाकर उनकी शिष्या बनी पुष्पचूल राजा की पनि पुष्पचूला साध्वी उन्हीं के पास रहकर भक्ति भाव से उनकी वैय्यावच करती रही। जब एक बार अर्णिका पुत्र आचार्य ने पुष्पचूला साध्वी से पूछा कि वर्षाकाल में तुम शुद्ध गोचरी कैसे प्राप्त करके लाती हो तो उन्होंने कहा कि ज्ञान द्वारा यह सब मैं जान जाती हूं और आचार्य ने फिर कहा कि क्या आपको केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है तो साध्वीजी ने कहा कि मुझे प्रतिपाति केवलज्ञान प्राप्त हुआ है फिर आचार्य ने केवली को खमाते हुये अपने मोक्ष प्राप्त करने की बात पूछी । तब साध्वीजी ने कहा कि आपको गंगा नदी पार करते करते मोक्ष प्राप्त होगा। अर्णिका-पुत्र आचार्य जब गंगा नदी पार करने अर्णिका-पुत्र आचार्य नाव पर जिस ओर बैठे उस ओर डूबने लगी। यह देख दूसरे यात्रियों ने उन्हें दूसरी ओर बैठाया और तब भी नाव उस ओर डूबने लगी। सब यात्रियों ने उन्हें उठाकर नदी में फेंक दिया। तत्क्षण आचार्य की पूर्व भव की पत्नि ने, जो अब व्यन्तरणि थी अपने त्रिशूल से आचार्य का छेदन किया और जैसे जैसे आचार्य के रक्त की बन्दें पानी में गिरने लगी आचार्य के मन में नदी में रह रहे अपकाय जीवों के प्रति करुणा भावना उत्पन्न होने लगी कि मेरे रक्त से इन जीवों की कैसी करुण दशा हो रही होगी और यह विचारते विचारते उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। अतिमुक्त मुनि पेढालपुर के राजा विजय के पुत्र अतिमुक्त ने आठ वर्ष की छोटी उम्र में माता पिता की आज्ञा से गौतम स्वामी के पास दीक्षा अंगीकार की। बाल साधु अत्यन्त तेजस्वी था परन्तु बालमन चंचल भी तो था । एक बार जब बारिस पड़ी हुई थी तो उपाश्रय के बाहर अन्य बालकों के साथ अतिमुक्त मुनि पातरा की होडी बनाकर पाणी के अन्दर तैराने लगे। संयोगवश गौतम स्वामी वहां से जा रहे थे। तो उन्होंने अतिमुक्त मुनि को साधु-धर्म की जानकारी दी और मुनि शरमाते हुये महावीर प्रभु के पास आये और 'इरिया वहिया' करते हुये ‘पणगदग मट्टिमकड़।' शब्द बोलते हुए पृथ्वीकाय और अपकाय जीवों को खमाते हुये केवलज्ञान को प्राप्त किया। १९४ श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy