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________________ जैन दर्शन और केवलज्ञान जैन दर्शन में ज्ञान की पांच श्रेणियां दर्शायी गई हैं। प्रथम मति ज्ञान, द्वितीय श्रुतज्ञान, तृतीय अवधिज्ञान चतुर्थ मनः पर्यव ज्ञान एवम् पंचम केवलज्ञान । उत्तरोत्तर प्रथम चार ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् जब चारघाती कर्म अर्थात् ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, अन्तराय और मोहनीय कर्म का समूल रूप से क्षय हो जाता है तो सर्व लोक में रहे पुद्गलों और उनके प्रयायों का स्वरूप स्पष्ट करने वाला केवलज्ञान प्राप्त होता है । परन्तु इस प्रणाली से अलग एक बात और भी है जब किन्हीं विशिष्ठ परिस्थितियों में केवलज्ञान एक ही समय में प्रकट होता है । १९२ D मूलचंद चन्दुलाल बेड़ावाला प्रभु महावीर ने धर्म चार प्रकार के बताये हैं । दान, शील, तप और भाव । दान, शील और तप-जप द्वारा मानव पुण्य अवश्य उपार्जित कर सकता है और कालान्तर में मोक्षगामी भी बन है । यह सब उसके पुरुषार्थ और प्रारब्ध पर निर्भर होता है । पर भाव धर्म की एक विशिष्ठ श्रेणी है जिसमें भक्ति, विरक्ति और प्रायश्चित की अभिव्यक्ति में भावों की उच्चतम सीमाओं सकता करता पार करते करते पुण्यात्मा एक ही समय में केवली बन जाते हैं। जैन दर्शन इस बात की पुष्टि है और जैन शासन ऐसे अनेक उदाहरणों से भरा पड़ा है जहां कदम कदम पर उन बिरले महापुरुषों के जीवन के अन्तिम क्षणों में केवलज्ञान सन्मुख था। यहां कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं। Jain Education International माता मरुदेवी ऋषभ देव प्रभु राजपाट छोड़, दीक्षा अंगीकार कर जब वर्षों तक अपने गृह नहीं लौटे तो श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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