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________________ तीर्थंकरभक्ति मूलक भी हो तो भी वह स्वीकार करने योग्य नहीं, और वस्तुत: उसमें तीर्थंकर भक्ति का उद्देश होता ही नहीं । इस उल्लेख से आचार्य हरिभद्रसूरि की आगमनिष्ठा का अनुमान बड़ी सुगमता से किया जा सकता है। वे आगमविरुद्ध किसी भी प्रवृत्ति के समर्थक नहीं हैं । इस पर से उनके ग्रन्थों में उपलब्ध होने वाले पूजा-विधायक उल्लेखों का आगममूलक होना भी अनायास ही प्रमाणित हो जाता है। वाचक श्रीउमास्वाति से लेकर श्रीहरिभद्रसूरि तक के आचार्यों ने जिन प्रतिमा के सम्बन्ध में जो विचार प्रदर्शित किये हैं उनका हमने अति संक्षेप से दिग्दर्शन करा दिया है। श्रीहरिभद्रसूरि ने तो इस विषय में बहुत कुछ लिखा है, जो कि विस्तारभय से यहां पर उल्लेख नहीं किया गया। जैन परम्परा के इन संभावित आचार्यों ने जिन प्रतिमा को जितना आदरणीय स्थान दिया है उस पर दृष्टिपात करते हुए जिनप्रतिमा की शास्त्रीयता और पूज्यता में सन्देह को कोई अवकाश नहीं रहता। __ अगर वैसे विचार किया जाए तो भगवान महावीर से लेकर विक्रम की सोलहवीं शताब्दी से पूर्व तक जैन परम्परा में जितने भी विशिष्ट और साधारण आचार्य हुए हैं उनमें से किसी ने भी जिनप्रतिमा के विरुद्ध कुछ लिखा हो ऐसा हमारे देखने में नहीं आया और विपरीत इसके परम्परा के सुप्रसिद्ध आचार्यों ने इसको कहां तक उपादेय बतलाया है यह ऊपर दिये गये उदाहरणों से स्पष्ट ही है। १. स्वमतिप्रवृत्ति: सर्वा आज्ञाबाह्येति भवफला चैव । तीर्थंकरोद्देशेनापि न तत्त्वत: सा तदुद्देशा ।। जिनप्रतिमा और जैनाचार्य १९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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