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________________ ३तंतम्मि वंदणाए पूयणसक्कारहेउ उस्सग्गो। जतिणो वि हु णिट्ठिो, ते पुणदव्वत्थयसरूवे॥ आचार्य कहते हैं कि चैत्यवन्दन नाम के शास्त्र में अर्थात् आवश्यक सूत्रगत ४“सव्वलोए अरिहंतचेइयाणं करेमि काउस्सग्गं वंदणबत्तियाए पूयण-वत्तियाए सक्कारवत्तियाए सम्माणवत्तियाए” इत्यादि पाठ से अर्हचैत्यो के पूजन और सत्कार के निमित्त तीर्थंकर प्रतिमाओं की पूजा और सत्कृति के लिये यति को भी-भावस्तवारुढ साधु को भी कायोत्सर्ग करने का निर्देश श्रीतीर्थकरादि ने किया है । पूजनसत्कार ये दोनों द्रव्यस्तव-द्रव्यपूजा रूप ही हैं। श्री हरिभद्रसूरि आगमविरुद्ध या आगमबाह्य किसी भी बात को स्वीकार नहीं करते । जो आचार शास्त्र विधिनिष्पन्न नहीं, वह अगर तीर्थोद्दशक भी हो तो भी आचार्य को वह मान्य नहीं। आप लिखते हैं १समितिपवित्तीसव्वा, आणावज्झ त्ति भवफला चेव तित्थगरुद्देसेणवि ण तत्तओ सा तदुद्देसा (पंचा. ८/१३) भावार्थ-अपनी बुद्धिकल्पित, शास्त्राज्ञा से बाहर की जो भी प्रवृत्ति है वह सब भवफला अर्थात् संसार की जन्म-मरण परम्परा को बढ़ाने वाली है, इस प्रकार की आज्ञाबाह्यप्रवृत्ति अगर भावार्थ-निर्वाण की इच्छा रखने वाले गृहस्थ को प्रमाद का परित्याग करके सूत्रोक्त विधि के अनुसार जिनेन्द्रदेवों का पूजन अर्चन करना चाहि यहां पर सूत्रोक्तविधि से, सम्भवत: राजप्रश्नीय सूत्रोक्त पूजाविधि ही अभिप्रेत होनी चाहिये, क्योंकि वहीं पर ही विशेष रूप से पूजा विधि का प्रकार वर्णित हुआ है। १. दव्वत्थयभावत्थयरूवं, पयमिय होति दट्ठव्वं । अण्णोण्णसमणुविद्धं णिच्छयतो भणिय विसयंतु ॥ (पंचा. ६/२७) २. “जइणो वि हु दव्वत्थयभेदो अणुमोयणेण अत्त्थि त्ति ।। एवं च एत्थ णेयं इय सुद्धं तंतजुत्तीए" (पंचा. ६/२८) (छा. यतेरपि खलु द्रव्यस्तवभेद: अनुमोदनेन अस्ति इति एतच्च अत्र ज्ञेयं अनया शुद्धं तंत्रयुक्त्या ।) अर्थात्-भावस्तव में आरूढ होने वाले साधु को भी अनुमोदन रूप से द्रव्यस्तव का अधिकार शास्त्रसम्मत है.---यतेरपि भावस्तवारूढसाधोरपि, न केवलं गृहिण एव, द्रव्यस्तवभेदो-द्रव्यस्तवविशेष, अनुमोदनेनजिनपूजादिदर्शनजनितप्रमोदप्रशंसादिलक्षणयाऽनुमत्या, अस्ति-विद्यतेXXXतंत्रयुक्त्या-शास्त्रगोपपत्त्या” (श्री अभयदेवसूरि) ३. तत्रे वन्दनायां पूजनसत्कारहेतुरुत्सर्गः । यतेरपि खलु निर्दिष्टः तौ पुन: द्रव्यस्तवनस्वरूपौ ॥६/२९) ४. सर्वलोके अर्हचैत्यानां करोमि कायोत्सर्ग वन्दनप्रत्ययं, पूजनप्रत्ययं सत्कारप्रत्ययं संमानप्रत्ययम् ।। १९० श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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