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________________ ही आवश्यकता होती है। इसीलिये ऐसे अनेकानेक प्रकार के साधन एवं संकेत हमें देखने तथा जानने को मिलते हैं। साधन-हरताल आदि-ग्रन्थों के संशोधन के लिये कलम आदि की आवश्यकता तो होती ही है, परन्तु इसके अतिरिक्त अशुद्ध और अनावश्यक अधिक अक्षरों को मिटाने के लिये अथवा उन्हें परिवर्तित करने के लिये हरताल, सफेदा आदि की और खास स्थान अथवा विषय आदि की पहचान के लिये लाल रंग, धागा आदि की भी आवश्यकता होती है। ताड़पत्रीय पुस्तकों के जमाने में अक्षरों को मिटाने के लिए हरताल आदि का उपयोग नहीं होता था, परन्तु अधिक अक्षरों को पानी से मिटाकर उसे अस्पष्ट कर देते थे अथवा उन अक्षरों की दोनों ओर ९-९ ऐसा उलटा सीधा गुजराती नौ के जैसा आकार बनाया जाता था और अशुद्ध अक्षर युक्ति से सुधार लेते थे। इसी प्रकार विशिष्ट स्थान आदि की पहचान के लिये उन स्थानों को गेरू से रंग देते थे । परन्तु कागज का युग आने के बाद यद्यपि प्रारम्भ में यह पद्धति चालू रही किन्तु प्राय: तुरंत ही संशोधन में निरुपयोगी अक्षरों को मिटाने के लिये तथा अशुद्ध अक्षरों को परिवर्तित करने के लिये हरताल और सफेदे का उपयोग दिखाई देता है। तूलिका, बट्टा, धागा-ऊपर निर्दिष्ट हरताल आदि लगाने के लिये तूलिका की आवश्यकता पड़ती थी तथा हरताल आदि के खुरदरेपन को दूर करने के लिये कौड़ी आदि से उसे पीस लेते थे। तूलिकाएं गिलहरी की दुम के बालों को कबूतर अथवा मोर के पंख के अगले पोले भाग में पिरोकर छोटी-बड़ी चाहिए वैसी हाथ से ही बना ली जाती थी अथवा आज की तरह तैयार भी अवश्य मिलती होगी । स्याही आदि घोंटने के लिये बट्टे भी अकीक आदि अनेक प्रकार के पत्थर के बनते थे। इनके अतिरिक्त ताड़पत्रीय ग्रन्थों के जमाने में ग्रन्थ के विभाग अथवा विशिष्ट विषय की खोज में दिक्कत या मेहनत न हो इसलिये ताड़पत्र के सुराख में धागा पिरोकर और उसके अगले हिस्से को ऐंठन लगाकर बाहर दिखाई दे इस तरह उसे रखते थे। . संशोधन के चिह्न और संकेत-जिस तरह आधुनिक मुद्रण के युग में विद्वान ग्रन्थ-सम्पादक तथा संशोधकों ने पूर्णविराम, अल्पविराम, प्रश्नचिन्ह, आश्चर्यदर्शक चिन्ह आदि अनेक प्रकार के चिह्न-संकेत पसन्द किए हैं, उसी तरह प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकों के जमाने में भी उनके संशोधक विद्वानों ने लिखित ग्रन्थों में व्यर्थ काट-छांट, दाग-धब्बा आदि न हो, टिप्पन या पर्यायार्थ लिखे बिना वस्तु स्पष्ट समझ में आ जाय इसके लिये अनेक प्रकार के चिह्न किंवा संकेत पसंद किए थे, जैसे कि—(१) गलितपाठदर्शक चिह्न, (२) गलितपाठविभागदर्शक चिह्न, ७२ श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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