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________________ (३) काना दर्शक चिह्न, (४) अन्याक्षरवाचनदर्शक चिह्न, (५) पाठपरावृत्तिदर्शक चिह्न, (६) स्वरसन्ध्यंशदर्शक चिह्न, (७) पाठान्तरदर्शक चिह्न, (८) पाठानुसन्धानदर्शक चिह्न, (९) पदच्छेददर्शक चिह्न, (१०) विभागदर्शक चिह्न, (११) एकपददर्शक चिह्न, (१२) विभक्तिवचनदर्शक चिह्न, (१३) टिप्पनक (विशेष नोट्स)- दर्शक चिह्न, (१४) अन्वयदर्शक चिह्न, (१५) विशेषण-विशेष्य-सम्बन्धदर्शक चिह्न और (१६) पूर्वपदपरामर्शक चिह्न । चिह्नों के ये नाम किसी भी स्थान पर देखने में नहीं आए परन्तु उनके हेतु के लक्ष में रखकर मैंने स्वयं ही इन नामों की आयोजना की है। ग्रन्थ-संरक्षण के साधन लिखित पुस्तकों के लिये दो प्रकार की कांबियों का (सं. कम्बिका= फुट जैसी लकड़ी की पट्टी) उपयोग किया जाता था। उनमें से एक बिलकुल चपटी होती थी और दूसरी हांस अर्थात् आगे के भाग में छोटे से खड्डेवाली होती थी। पहले प्रकार की कांबी का पुस्तक पढ़ते समय उँगली का पसीना या मैल का दाग उस पर न पड़े इसलिये उसे पन्ने पर रखकर उस पर उँगली रखने में किया जाता था। जिस तरह आज भी कुछ सफाईपसंद और विवेकी पुरुष पुस्तक पढ़ते समय उँगली के नीचे कागज वगैरह रखकर पढ़ते हैं ठीक उसी तरह पहले प्रकार की कांबी का उपयोग होता था। दूसरी तरह की कांबी का उपयोग पन्ने के एक सिरे से दूसरे सिरे तक या यंत्रादि के आलेखन के समय लकीरें खींचने के लिये किया जाता था। कम्बिका के उपयोग की भांति ही पुस्तक मुड़ न जाय, बिगड़ न जाय, उसके पन्ने उड़ न जाय, वर्षाकाल में नमी न लगे इस तरह की ग्रन्थ की सुरक्षितता के लिये कवली (कपड़े से मढ़ी हुई छोटी और पतली चटाई), पाठे अर्थात् पुढे, वस्त्रवेष्टन, डिब्बे आदि का भी उपयोग किया जाता था। पाठे और डिब्बे निरुपयोगी कागजों की लुगदी में से अथवा कागजों को एक दूसरे के साथ चिपकाकर बनाए जाते थे । पाठे और डिब्बों को सामान्यत:चमड़े या कपड़े आदि से मढ़ लिया जाता था अथवा उन्हें भिन्न भिन्न प्रकार के रंगों से रंग लेते थे। कभी कभी तो उन पर लता आदि के चित्र और तीर्थंकर आदि के जीवनप्रसंग या अन्य ऐतिहासिक प्रसंग वगैरह का आलेखन किया जाता था। यह बात तो कागज की पुस्तकों के बारे में हुई। ताड़पत्रीय ग्रन्थ आदि के संरक्षण के लिये अनेक प्रकार की कलापूर्ण चित्रपट्टिकाएं बनाई जाती थी। उनमें सुन्दर-सुन्दरतम बेलबूटे विविध प्राणी, प्राकृतिक वन, सरोवर आदि के दृश्य, तीर्थंकर एवं आचार्य आदि के ज्ञान भंडारों पर एक दृष्टिपात ७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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