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________________ लिखते थे। जैन साध्वियों द्वारा तथा देवप्रसाद (वि.सं. ११५७) जैसे श्रावक अथवा सावदे (अनुमानत:विक्रम की १४वीं शती), रूपादे आदि श्राविकाओं द्वारा लिखे गए ग्रन्थ तो यद्यपि बहुत ही कम हैं परन्तु जैन साधु एवं जैन आचार्यों के लिखे ग्रन्थ तो सैकड़ों की संख्या में उपलब्ध होते हैं। पुस्तकों के प्रकार-प्राचीन काल में (लगभग विक्रम की पांचवी शती से लेकर) पुस्तकों के आकार-प्रकार पर से उनके गण्डीपुस्तक, मुष्टिपुस्तक, संपुटफलक, छेदपाटी जैसे नाम दिए जाते थे। इन नामों का उल्लेख निशीथभाष्य और उसकी चूर्णि आदि में आता है। जिस तरह पुस्तकों के आकार-प्रकार पर से उन्हें उपर्युक्त नाम दिए गए हैं उसी तरह बाद के समय में अर्थात् पन्द्रहवीं शती से पुस्तकों की लिखाई के आकार-प्रकार पर से उनके विविध नाम पड़े हैं, जैसे कि शूड़ अथवा शूढ़ पुस्तक, द्विपाठ पुस्तक, पंचपाठ पुस्तक, सस्तबक पुस्तक । इनके अतिरिक्त चित्रपुस्तक भी एक प्रकारान्तर है। चित्रपुस्तक अर्थात् पुस्तकों में खींचे गए चित्रों की कल्पना कोई न करे। यहां पर 'चित्रपुस्तक' इस नाम से मेरा आशय लिखावट की पद्धति में से निष्पन्न चित्र से है। कुछ लेखक लिखाई के बीच ऐसी सावधानी के साथ जगह खाली छोड़ देते हैं जिससे अनेक प्रकार के चौकोर, तिकोन, षट्कोण, छत्र, स्वस्तिक, अग्निशिखा, वज्र, डमरू, गोमूत्रिका आदि आकृतिचित्र तथा लेखक के विवक्षित ग्रन्थनाम, गुरुनाम अथवा चाहे जिस व्यक्ति का नाम या श्लोक-गाथा आदि देखे किंवा पढ़े जा सकते हैं । अत:इस प्रकार के पुस्तक को हम 'रिक्तलिपिचित्रपुस्तक' इस नाम से पहचानें तो वह युक्त ही होगा। इसी प्रकार, ऊपर कहा उस तरह, लेखक लिखाई के बीच में खाली जगह न छोड़कर काली स्याही से अविच्छिन्न लिखी जाती लिखावट के बीच में के अमुक-अमुक अक्षर ऐसी सावधानी और खूबी से लाल स्याही से लिखते जिससे उस लिखावट में अनेक चित्राकृतियां, नाम अथवा श्लोक आदि देखे-पढ़े जा सकते। ऐसी चित्रपुस्तकों को हम 'लिपिचित्रपुस्तक' के नाम से पहचान सकते हैं। इसके अतिरिक्त 'अंकस्थानचित्रपुस्तक' भी चित्रपुस्तक का एक दूसरा प्रकारान्तर है । इसमें अंक के स्थान में विविध प्राणी, वृक्ष, मन्दिर आदि की आकृतियां बनाकर उनके बीच पत्रांक लिखे जाते हैं । चित्र-पुस्तक के ऐसे कितने ही इतर प्रकारान्तर हैं। ग्रन्थ संशोधन, उसके साधन तथा चिह्न आदि जिस तरह ग्रन्थों के लेखन तथा उससे सम्बद्ध साधनों की आवश्यकता है उसी तरह अशुद्ध लिखे हुए ग्रन्थों के संशोधन की, उससे सम्बद्ध साधनों की और इतर संकेतों की भी उतनी ज्ञान भंडारों पर एक दृष्टिपात ७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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