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________________ लेखक अथवा लहिया-अपने यहां ग्रन्थ लिखने वाले लेखक अथवा लहिए कायस्थ, ब्राह्मण आदि अनेक जातियों के होते थे। कभी कभी तो पीढ़ी दर पीढ़ी उनका यह अविच्छिन व्यवसाय बना रहता था। ये लेखक जिस तरह लिख सकते थे उसी तरह प्राचीन लिपियां भी विश्वस्त रूप से पढ़ सकते थे। लिपि के प्रमाण और सौष्ठव का उनका बहुत व्यवस्थित ज्ञान रहता था। लिपि की मरोड़ या उसका विन्यास भिन्न भिन्न संस्कार के अनुसार भिन्न भिन्न रूप लेता था और लिपि के प्रमाण के अनुसार आकार-प्रकार में भी विविधता होती थी। कोई लेखक लम्बे अक्षर लिखते तो कोई चपटे, जबकि कोई गोल लिखते । कोई लेखक दो पंक्तियों के बीच मार्जिन कम से कम रखते तो कोई अधिक रखते । पिछली दो-तीन शताब्दियों को बाद करें तो खास करके लिपि का प्रमाण ही बड़ा रहता और पंक्तियों के ऊपर-नीचे का मार्जिन कम से कम रहता । वे अक्षर स्थूल भी लिख सकते थे और बारीक से बारीक भी लिख सकते थे। लेखकों के बहम भी अनेक प्रकार के थे। जब किसी कारणवश लिखते लिखते उठना पड़े तब अमुक अक्षर आए तभी लिखना बन्द करके उठते, अन्यथा किसी-न-किसी प्रकार का नुकसान उठाना पड़ता है ऐसी उनमें मान्यता प्रचलित थी। जिस तरह अमुक व्यापारी दूसरे का रोजगार खूब अच्छी तरह से चलता हो तब ईर्ष्यावश उसे हानि पहुंचाने के उपाय करते हैं, उसी तरह लहिए भी एक-दूसरे के धन्धे में अन्तराय डालने के लिये स्याही की चालू दावात में तेल डाल देते, जिससे कलम के ऊपर स्याही ही जमने न पाती और उसके दाग कागज पर पड़ने लगते । विशेष करके ऐसा काम कोई विशेष रूप से मारवाड़ी लहिये ही करते थे किन्तु ऐसी प्रवृत्ति को कुसमादी–कमीनापन ही कहा जाता था। कुछ लहिए जिस फट्टी पर पन्ना रखकर पुस्तक लिखते उसे खड़ी रख करके लिखते तो कुछ आड़ी रख कर लिखते, जब कि काश्मीरी लहिए ऐसे सिद्धहस्त होते थे कि पन्ने के नीचे फट्टी या वैसा कोई सहारा रखे बिना ही लिखते थे । अधिकतर लहिए आड़ी फट्टी रख कर ही लिखते हैं, परन्तु जोधपुरी लहिए फट्टी खड़ी रखकर लिखते हैं। उनका मानना है “कि आड़ी पाटी से लुगाइयां लिखें, मैं तो मरद हों सा!” इसके अतिरिक्त अपने धन्धे के बारे में ऐसी बहुत सी बातें हैं जिन्हें लहिए पसन्द नहीं करते । वे अपनी बैठने की गद्दी पर दूसरे किसी को बैठने नहीं देते, अपनी चालू दावात में से किसी को स्याही भी नहीं देते और अपनी चालू कलम भी किसी को नहीं देते । लहियों के बारे में इस तरह की विविध हकीकतों के सूचक बहुत से सुभाषित आदि हमें प्राचीन ग्रन्थों में से मिलते हैं, जो उनके गुण-दोष, उनके उपयोग की वस्तुओं तथा उनके स्वभाव आदि का निर्देश करते है। जिस तरह लहिए ग्रन्थ लिखते थे उसी तरह जैन साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविकाएँ भी सौष्ठवपरिपूर्ण लिपि से शास्त्र ७० श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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