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________________ ३५८ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ व्याख्या आज भी करने की आवश्यकता है। आहार की न्यूनता के नाम से सजीव प्राणियों का उत्पीडन मानव व्यवहार नहीं हो सकता है, एक अहिंसा धर्मप्रेमी, चाहे वह किसी भी सम्प्रदाय का क्यों न हो, इस बात को कभी स्वीकार नहीं कर सकता कि एक व्यक्ति की सहुलियत के लिए अनेक जीवों का संहार किया जाय । आज तो मांसाहार प्रधान पाश्चात्य देशों में भी अनेक सुसमंजस सुबुद्ध विद्वान् मांस की निरुपयोगिता को सिद्ध कर रहे हैं। आयुर्विज्ञान-महार्णव, आयुर्वेदकलाभूषण श्री शेष शास्त्री ने आयुर्वेद सम्मेलन के एक भाषण में सिद्ध किया था कि मद्यमांसादिक का उपयोग औषध प्रयोग में करना उचिन नहीं है । और ये गलिच्छ पदार्थ भारतीयों के शरीर के लिए कदापि हितावह नहीं हैं । काशी हिंदु विश्वविद्यालय के आयुर्वेद समारंभोत्सव के प्रसंग में महामहोपाध्याय, विद्यानिधि कविराज श्री गणनाथ सेन एम् . ए. ने इन मद्यमांसादिक के प्रयोग का तर्कशुद्ध पद्धति से निषेध किया था । अखिल भारतीय आयुर्वेद महासम्मेलन कानपुर के अधिवेशन में कविराज श्री योगींद्रनाथ सेन एम् . ए. ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि अंग्रेजी औषध प्रायः मद्यमांसादिक से मिश्रित होते हैं अतः वे भारतीयों की प्रकृति के लिए अनुकूल नहीं हो सकते । ___वनस्पतियों में अचिंत्य शक्ति है, इसे भारतीय आयुर्वेद ग्रंथकारों ने प्रयोगों से सिद्ध किया है। भारतीय वनस्पति ही भारतीयों के स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त हो सकती है। क्या आचार्य समंतभद्र का भस्मक रोग आयुर्वेद औषधों से दूर नहीं हुआ ? महर्षि पूज्यपाद व नागार्जुन को गगन-गमन-सामर्थ्य व गत नेत्रों की प्राप्ति आयुर्वेद औषधों से नहीं हुई ? लोक में कठिन से कठिन माने जानेवाले रोगों की चिकित्सा आयुर्वेद पद्धति से हो सकती है तो उसके प्रयोगों में निंद्य व गर्दा ऐसे मांसादिक का प्रयोग कर अहिंसा धर्म का गला क्यों घोटा जाता है ? सर्व प्राणिहित करने का श्रेय वैद्य विद्वानों को मिल सकता है, इस दृष्टि से जैन आयुर्वेद ग्रंथकारों ने अपने सामने विश्वकल्याण का ध्येय रखा है । औषधिप्रयोग में भी किसी भी जीव को पीडा न पहुंचे यह उनकी भावना कितनी बडी उदारता की द्योति का है यह हमारे वाचक विचार करें। विश्ववंद्य चारित्र चक्रवर्ति आचार्य शांतिसागर महाराज का जन्म शताब्द वर्ष मनाया जा रहा है । आचार्य श्री ने अपने पावन जीवन में लोककल्याण का कार्य किया है । वैद्य यदि व्यवहार स्वास्थ्य की रक्षा करते हैं तो आचार्य श्री ने पारमार्थिक स्वास्थ्य की रक्षा की है। व्यावहारिक स्वास्थ्य अस्थायी है, नश्वर है, विकृतिसंभव है, परंतु पारमार्थिक स्वास्थ्य स्थायी है, नित्य है, अविकृत व प्रकृतिदत्त है। जैन महर्षि उस पारमार्थिक स्वास्थ का ही उपदेश देते हैं । उसका लक्षण करते हुए आचार्य देव कहते हैं कि अशेषकर्मक्षयजं महाद्भुतं यदेतदात्यंतिकमद्वितीयम् । अतींद्रियं प्रार्थितमर्थवेदिभिः तदेतदुक्तं परमार्थनामकम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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