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________________ जैन ज्योतिष साहित्य का सर्वेक्षण २३७ ज्योतिर्ज्ञानविधि प्रारम्भिक ज्योतिष का ग्रन्थ है । इसमें व्यवहारोपयोगी मुहूर्त भी दिये गये हैं। आरम्भ में संवत्सरों के नाम, नक्षत्र नाम, योग-करण, तथा उनके शुभाशुभत्व दिये गये हैं। इसमें मासशेष, मासाधिपति शेष, दिनशेष एवं दिनाधिपति शेष आदि गणितानयन की उद्भुत प्रक्रियाएँ बतायी गयी हैं। जातकतिलक-कन्नड भाषा में लिखित होरा या जातकशास्त्र सम्बन्धी रचना है। इस ग्रन्थ में लग्न, ग्रह, ग्रहयोग, एवं जन्मकुण्डली सम्बन्धी फलादेश का निरूपण किया गया है । दक्षिणभारत में इस ग्रन्थ का अधिक प्रचार है। चन्द्रोन्मीलन प्रश्न भी एक महत्त्वपूर्ण प्रश्नशास्त्र की रचना है। इस ग्रन्थ के कर्ता के सम्बन्ध में भी कुछ ज्ञात नहीं है। ग्रन्थ को देखने में यह अवश्य अवगत होता है कि इस प्रश्नप्रणाली का प्रचार खूब था । प्रश्नकर्ता के प्रश्नवर्णों का संयुक्त, असंयुक्त, अभिहत, अनभिहत, अभिघातित, अभिधूमित, आलिंगित और दग्ध इन संज्ञाओं में विभाजन कर प्रश्नों का उत्तर में चन्द्रोन्मीलन का खण्डन किया गया है। "प्रोक्तं चन्द्रोन्मीलनं शुक्लवस्त्रैस्तच्चाशुद्धम् " इससे ज्ञात होता है कि यह प्रणाली लोकप्रिय थी। चन्द्रोन्मीलन नाम का जो ग्रन्थ उपलब्ध है, यह साधारण है। उत्तरमध्यकाल में फलित ज्योतिष का बहुत विकास हुआ । मुहूर्तजातक, संहिता, प्रश्न सामुद्रिकशास्त्र प्रभृति विषयों की अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाएँ लिखी गयी हैं। इस युग में सर्वप्रथम और प्रसिद्ध ज्योतिषी दुगदेव हैं। दुर्गदेव के नाम से यों तो अनेक रचनाएँ मिलती हैं, पर दो रचनाएँ प्रमुख हैंरिट्ठसमुच्चय और अर्द्धकाण्ड । दुर्गदेव का समय सन् १०३२ माना गया है। रिट्ठसमुच्चय की रचना अपने गुरु संयमदेव के वचनानुसार की है। ग्रन्थ में एक स्थान पर संयमदेव के गुरु संयमसेन और उनके गुरु माधवचन्द्र बताए गए हैं। रिटठसमुच्चय शौरसेनी प्राकृत में २६१ गाथाओं में रचा गया है। इसमें शकुन और शुभाशुभ निमित्तों का संकलन किया गया है। लेखक ने रिष्टों के पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ नामक तीन भेद किए हैं। प्रथम श्रेणी में अंगुलियों का टूटना, नेत्रज्योति की हीनता, रसज्ञान की न्यूनता, नेत्रों से लगातार जलप्रवाह एवं जिव्हा न देख सकना आदि को परिगणित किया है। द्वितीय श्रेणी में सूर्य और चन्द्रमा का अनेकों रूपों में दर्शन प्रज्वलित दीपक को शीतल अनुभव करना चन्द्रमा को त्रिभंगी रूप में देखना, चन्द्रलांछन का दर्शन न होना इत्यादि को ग्रहण किया है। तृतीय में निजछाया परच्छाया तथा छायापुरुष का वर्णन है । प्रश्नाक्षर, शकुन और स्वप्न आदि का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। अर्द्धकाण्ड में तेजी-मंदी का ग्रहयोग के अनुसार विचार किया गया है। यह ग्रन्थ भी १४९ प्राकृत गाथाओं में लिखा गया है। ___ मल्लिसेन-संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान थे। इनके पिता का नाम जिनसेन सूरि था, ये दक्षिण भारत के धारवाड जिले के अन्तर्गत गदग तालुका नामक स्थान के रहनेवाले थे। इनका समय ई. सन् १०४३ माना गया है। इनका आयसद्भाव नामक ज्योतिषग्रंथ उपलब्ध है। आरम्भ में ही कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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