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________________ जीवनपरिचय तथा कार्य २३ पिता के द्वारा घर में जो कुछ धार्मिक संस्कार हुए केवल वे ही जीवनी का जीवनाधार बन गये । सत्य सत्य कहना हो तो जीवन में इस मूल मूडी में सातगौंडा ने अच्छी वृद्धि ही की जिससे माता पिता का मुख उज्ज्वल हो गया । पाठशाला में भी सातगौंडा ने एक बुद्धिमान् विद्यार्थी के रूप में ही प्रसिद्धि पायी थी। जब चरित्र नायक ९ साल के हुए, ज्येष्ठ भाई देवगौंडा और आदगौंडा का विवाह संपन्न हो रहा था। सातगौंडा का भी विवाह बलात् ही किया गया । 'संसारविषये सद्यः स्वतो हि मनसो गतिः'। संसार के विषयों में संसारी जीवों की निसर्ग से प्रवृत्ति होती ही है। बच्चों के खेल जैसी प्रक्रिया हो गयी। दैव को वह भी स्वीकार नहीं थी। विवाह के पश्चात् छः माह के भीतर ही विवाहिता की इहलोक यात्रा समाप्त हुई । सातगौंडा बाल्यावस्था में विवाहबद्ध होकर भी निसर्ग से बालब्रह्मचारी रहे । 'लाभात् अलाभं बहु मन्यमानः ।' लाभ से अलाभ को लाभप्रद मानने की बालक सातगौंडा की निसर्ग प्रवृत्ति रही। अनंतर किये गये आग्रह के वे शिकार नहीं हुए। सातौंडा का शरीर सुदृढ और बलवान् था। दो बैलों से खींचे जानेवाली पानी से भरी हुई मोट वे अपने दो हाथों से अनायास खींच सकते थे। और ज्वार के भरे दो थैलों को एकसाथ उठा सकते थे। इससे उनके शारीरिक सामर्थ्य का पता लग सकता है। बौद्धिक सामर्थ्य भी कम नहीं था । स्वभाव से भी वे अत्यंत शांत, विनयसंपन्न, सेवापरायण, सत्यवक्ता, और न्यायप्रिय पुरुष थे। सहज ही उनके वचनों पर लोगों का विश्वास हो जाता था। वदन प्रसन्नता का सदन था । वाणी में सरलता थी, मधुरता थी और आकर्षकता थी। प्रभावशालिता भी थी। वृत्ति में सरलता थी और प्रवृत्ति सौजन्यपूर्ण थी। खादी की धोती, खादी का सादगीपूर्ण कुरता और सिर के लिए स्वच्छ दक्षिणी ढंग का रुमाल यह सादगीपूर्ण पोषाख थी। जिस में से निसर्ग सुन्दर भावनाओं की सजीव सुन्दरता का सहज ही दर्शन होता था । जो आकर्षक या और प्रभावशाली भी था। अध्यात्म जीवन का नैसर्गिक आकर्षण सातौंडा घरकी खेती करते थे। और कपडे का व्यापार भी कर लेते थे। तथापि उन्हें व्यापार की या खेती की ऐसी कोई खास रुचि नहीं थी। बाहर का लगाव भी न था । आत्मकल्याण भावनाओं का आकर्षण विशेष था। जीव-जाति-संबन्धी दयाभाव-प्रेमभाव रखना, त्यागी गणों की सेवा करना, वैय्यावृत्त्य करना आदि बचपन से किए गए धार्मिक संस्कारों से और साधुसज्जनों के समागम से आचार्यश्री ने अपने आध्यात्मिक जीवन की नींव पूरी पक्की कर ली थी। भोजग्राम में चातुर्मास काल में मंदिरजी में शास्त्रवाचन होता था। सातौंडा नित्य नियम से शास्त्र श्रवण करने जाते थे । वे वाचन की अपेक्षा शास्त्र का चिंतन मनन करना अधिक पसंद करते थे । इसी समय में सातगौंडा की 'रुद्राया' नामक लिंगायत जाति के किसी प्रकृतिभद्र ग्रहस्थ के साथ विशेष मित्रता हो गई। 'सांगत्यं हि सयोनिषु', समशीलों में साहचर्य होही जाता है । आचार्य जिनसेन ने ठीक ही कहा । रुद्राण्या सत्यभाषी तथा अध्यात्मप्रेमी आत्मचिंतन करनेवाले पुरुष थे। कभी-कभी वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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