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________________ २२ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ भारतीय संस्कृति में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन प्रमुख जीवन तत्त्वों का अपना एक स्थान है। परंतु उन्नीसवे शतक में भारत में परिस्थिति का कुछ विचित्र परिवर्तन हुआ । समाज जीवन का चित्र ही बदल गया । जीव जाति के लिए प्रकाश स्वरूप अहिंसा और त्याग का आदर्श प्रायः लुप्तसा हुआ । अंधःकार जैसे हिंसा और भोग का ही साम्राज्य चारों ओर बढता गया । जैन समाज में भी प्रायः मिथ्यात्व का प्रचार बहुलता से प्रचलित हो गया । साधना के आधार स्तंभ वीतरागदेव, निग्रंथ गुरु, सिद्धांत शास्त्र की उपासना का महत्त्व कम होता गया। जैसे समुद्र में नीचे नीचे प्रकाश का अभाव होता है। अन्यान्य काल्पनिक देव-देवताओं की पूजा और सग्रंथ गुरु की उपासना ने अपना स्थान जमा लिया । एवं जैन धर्म की अपने आचार-विचार विषयक शुद्ध प्राचीन परंपरा प्रायः लुप्तसी हो रही थी। काल प्रवाह को या औरों को दोष देना व्यर्थ है। चोर उसी घर में अपना स्वामित्व बना लेते हैं जिस घर का स्वामी सोया हो। निसर्ग की ऐसी ही धारा है। इस प्रकार की प्रतिकूल परिस्थिति में सौ वर्ष. पूर्व आचार्य श्री शांतिसागर महाराज जैसे श्रेष्ठ विभूति का जन्म होना जैन संस्कृति और जैन समाज के लिये सुनिश्चित वरदान सिद्ध हुआ। जन्मकाल और बाल्यावस्था गौरवशाली प्रकाशपुञ्ज आचार्य कुंदकुंद, स्वामी समंतभद्र, विद्यानंदी, जिनसेन इत्यादि आचार्यों की जन्मभूमि तथा उपदेश से पुनीत विहार भूमि-कर्नाटक देश में आचार्यश्री १०८ शांतिसागर महाराज का जन्म हुआ। बेलगांव जिले के चिकोडी तहसील में दूधगंगा और वेदगंगा के संगम के कारण तीर्थरूप 'भोज' नामक ग्राम के पास 'येळगुड' गांव में विक्रम संवत १९२९ में (इ. सन १८७३ ) जेष्ठ मास के कृष्णपक्ष में नवमी तिथि को बुधवार की रात्रि में आचार्यश्री का जन्म हुआ । जन्म नाम 'सातौडा' था । पिताश्री का नाम भीमगौंडा था। वे पाटील घराने के थे। 'पाटील' याने नगर के राजा । ऐसा ही समाज में उनका मानसन्मानपूर्ण स्थान था। ऊंची पूरी शक्तिशाली देह थी। पराक्रमशीलतापूर्ण नैसर्गिक वृत्ति थी। धीर वीर गंभीर सहज मनोवृत्ति थी। माता का नाम देवी ' सत्यवती" था । वह भी श्रद्धालु, धार्मिक और सदाचारसंपन्न थी। भगवान की भक्तिपूजा करना, त्यागी गणों को आहारदान देना, उनका वैयावृत्य कराना, दीन दुखिओं को सहायता पहुँचाना आदि कार्यों में विशेष रुचिपूर्ण सावधान थी । वह माता का सहज स्वभाव था । छोटे बडे व्यसनों से दूर पिताजी ने सोलह वर्ष तक दिन में एकही बार भोजन करने का व्रत लिया था । आचार्यश्री का बालजीवन इस प्रकार से सदाचार संपन्न माता-पिता की छत्र छाया में व्यतीत हुआ । एकप्रकार से निसर्ग योजना में यह मणिकांचन संयोग ही था। सातगौंडा की विद्यालयीन शिक्षा बहुत कम हुई। वे पाठशाला में तीसरी कक्षा तक पढ पाये । शिक्षा के आदान-प्रदान की व्यवस्था भी आज की अपेक्षा देहातों में सापेक्ष कम थी। संस्कारशील माता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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